Friday, January 2, 2015

ईंट

हर व्यक्ति एक मज़दूर है
जो अपने सिर पर कई तरह के
प्रश्नों की ईंटें ढोकर
जीवन की इमारत मे
उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ रहा है

इन सभी ईंटों मे
सबसे वजनी और अलग ईंट है भूख
क्योंकि सिर पर चढ़ने से पहले ही
वो निचोड़ चुकी होती है
व्यक्ति के तन से
किसी भी ईंट को वहन करने की
क्षमता

योगेश ध्यानी

Tuesday, December 30, 2014

चीज़ का आधिक्य नही
बल्कि ढेर प्रयत्नो के बाद
उस चीज़ की प्राप्ति
भरती है हममे प्रसन्नता

Friday, December 26, 2014

प्रगति-एक दृश्य

बड़ी चौड़ी सड़क के
बीचों बीच
डिवाइडर पर रोपे गये
पौधों पर तो
खिल आए हैं फूल
मगर वहीं डिवाइडर के पास
बड़ी बड़ी शीशाबंद गाड़ियों से
भीख माँगते बच्चों के
बिना चप्पल के नंगे पैरों को
अब भी चाट रही है
ज़मीन की
बेहद ठंडी ज़ीभ


yogesh dhyani
एक नज़्म
नही मैं अभी तक भी भूला नही हूँ
मुझे ताकती टकटकी वो तुम्हारी

दीवारों पे अब भी टॅंगी ही हुई हैं
कॅलंडर के जैसी वो आँखें तुम्हारी
कई बार तुड़वा के देखा है इनको
मगर हर दीवारों पे तुम हो तुम्ही हो
तुम्हारे ही हाथों मिटेगीं ये शायद
बस इतनी सी मिन्नत है इक बार आकर
इन्हे भर लो अपनी निगाहों मे वापस
वो हर याद जो भी है बिखरी यहाँ पर
पिटारी मे भरकर उसे पास रख लो
फँसा मुश्किलों मे है इमरोज़ मेरा

नही मैं अभी तक भी भूला नही हूँ
मुझे ताकती टकटकी वो तुम्हारी

Thursday, April 25, 2013

दुविधा

मुझे

एक सा अचंभित करती हैं



अंधेरे का हर भेद

खोल के रख देने वाली

सूरज की निर्दयी धूप

या फिर

सिर्फ़ अपने होने का

कोमल आभास कराने वाली

जुगनू की टिम टिम रोशनी



दुविधा ये है

कि होने की चाह मे दोनो

मैं हो नही पाता हूँ

कुछ भी

Monday, October 1, 2012

पास मेरे है मेरा भोला-भाला सच




















काले चश्मों के भीतर है काला सच
छुपा लिया है सबने अपना वाला सच

शाम को भी क्यूँ आँख पे काले चश्मे हैं
फ़ैशन मे है दुनिया गड़बड़झाला सच


हर पल रंग बदलने वाला झूठ नही
पास मेरे है मेरा भोला-भाला सच


जिसने जैसा समझा वैसा मोड़ दिया
सबने अपने सांचो मे है ढाला सच

अपने छोटे छोटे स्वार्थ की खातिर ही
हमने,तुमने,सबने मिलकर टाला सच

झूठ है चढ़ बैठा दुनिया के मस्तक पर
पाँव के नीचे जैसे दुखता छाला सच

धज्जी धज्जी होकर चकनाचूर हुआ
न्यायालय मे जब भी गया उछाला सच

Wednesday, July 11, 2012

बेवजह ही वो गया मर, याद है अब तक

















खून मे लथपथ थे खंज़र, याद है अब तक
हू-ब-हू हमको वो मंज़र, याद है अब तक


आग मे जलते हुए घर, याद है अब तक
धूल के उड़ते बवंडर, याद है अब तक

हर कोई ज़िंदा था जो उसकी निगाहों मे
कांपता था ख़ौफ़ थर थर, याद है अब तक

दुधमुँहे को अपनी छाती से लगा करके
एक माँ दौड़ी थी दर दर, याद है अब तक

नफ़रतों ने क़ौम की जिसको जला डाला
पीढ़ियों के प्यार का घर, याद है अब तक

रहनुमा के कान मे जूँ तक नही रेंगी
हो गये थे खुदा पत्थर, याद है अब तक

दास्ताँ सरकार की जो फाइलों मे है
चीख थी उससे भयंकर, याद है अब तक

वो जो मंदिर मे भी,मस्जिद मे भी मिलता था
बेवजह ही वो गया मर, याद है अब तक