Friday, December 26, 2014

एक नज़्म
नही मैं अभी तक भी भूला नही हूँ
मुझे ताकती टकटकी वो तुम्हारी

दीवारों पे अब भी टॅंगी ही हुई हैं
कॅलंडर के जैसी वो आँखें तुम्हारी
कई बार तुड़वा के देखा है इनको
मगर हर दीवारों पे तुम हो तुम्ही हो
तुम्हारे ही हाथों मिटेगीं ये शायद
बस इतनी सी मिन्नत है इक बार आकर
इन्हे भर लो अपनी निगाहों मे वापस
वो हर याद जो भी है बिखरी यहाँ पर
पिटारी मे भरकर उसे पास रख लो
फँसा मुश्किलों मे है इमरोज़ मेरा

नही मैं अभी तक भी भूला नही हूँ
मुझे ताकती टकटकी वो तुम्हारी

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