Saturday, October 30, 2010

इतवार

इतवार है आज
मोहल्ले भर मे हुई है
देर से सुबह
साठ से कम की उम्र का कोई भी
नही छोड़ना चाहता है बिस्तर
आठ से पहले

बच्चों को परियों के सपनो से
बदहवास सा उठाकर
उनके मुँह मे
नही ठूँसा जा रहा है
टूथब्रश
(आज इज़ाजत है उन्हे
परियों के साथ
आसमान मे
थोड़ा और दूर तक
उड़ आने की)

पतियों को दाढ़ी नही बनानी आज
(आज उन्हे अपने अफसरों को
नही दिखना है चेहरा
जो ढूँढते रहते हैं
दाढियों मे तिनके)

और पत्नियाँ
खिड़की मे सूरज चढ़ आने के
बावजूद भी
चादर से मुँह ढांपकर
अलसाने का
कर रही हैं नाटक
(नाटक इसलिए करना पड़ रहा है
क्योंकि अब तो उन्हे
सुबह साढ़े पाँच बजे उठने की
ऐसी आदत पद चुकी है
कि अलार्म का बजना
या ना बजना
गौण है)

बेवजह बिस्तर पर लेटे रहना
परिचायक है
आलस के मौजूद होने का
और पुराने ज़माने से ही
आलस हमेशा से रहा है
राजे रजवाड़ों की जागीर
(अब ग़रीब भला
कहाँ से खरीदेगा आलस)
तो इतवार की इस सुबह मे
सब पाल रहे हैं
अपने भीतर के
उस बचे खुचे आलस को
(जिसको की
बलि चढ़ाया जा चुका है
प्रगती और विकास की
बलिवेदी पर)
और ऐसा करने से
उनके भीतर जाग रहा है
राजा होने का भाव

इन सबके बीच
सिर्फ़ एक बाबू जी हैं
जो ना चाहते हुए भी
साठ पार करके
सेवानिवृत्त हो चुके हैं
तड़के सुबह जब वो
सैर से वापस आते हैं
तो अपने सामने
चाय का प्याला ना पाकर
उन्हे एहसास होता है
कि आज इतवार है
(रोज़ तारेख बताने वाला
अख़बार भी तो
लेट आता है
इतवार के दिन)

जैसे जैसे चढ़ता है दिन
वैसे वैसे कम होता जाता है
बचा हुआ इतवार
और उस घटते हुए इतवार मे
धीरे धीरे
उतरता जाता है
हमारी सोच के बदन से
राजसी लिबास
अगली सुबह होने तक
हम पूरी तरह से
तह करके
अलमारी मे रख चुके होते हैं उसे
और फिर से आ जाते हैं
राज दरबार मे खड़े
किसी अदने से मुलाज़िम की तरह
जी-हुज़ूरी की मुद्रा मे..............

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