एक नज़्म
नही मैं अभी तक भी भूला नही हूँ
मुझे ताकती टकटकी वो तुम्हारी
दीवारों पे अब भी टॅंगी ही हुई हैं
कॅलंडर के जैसी वो आँखें तुम्हारी
कई बार तुड़वा के देखा है इनको
मगर हर दीवारों पे तुम हो तुम्ही हो
तुम्हारे ही हाथों मिटेगीं ये शायद
बस इतनी सी मिन्नत है इक बार आकर
इन्हे भर लो अपनी निगाहों मे वापस
वो हर याद जो भी है बिखरी यहाँ पर
पिटारी मे भरकर उसे पास रख लो
फँसा मुश्किलों मे है इमरोज़ मेरा
नही मैं अभी तक भी भूला नही हूँ
मुझे ताकती टकटकी वो तुम्हारी