होश एक कीड़ा है
और नींद छिपकली
मौका पाते ही
निगल जाती है
चट से
मगर कभी कभी
जब होश पी लेता है
तुम्हारी याद
तो बिचारी छिपकली
लाख पैतरों के बावज़ूद
छू भी नही पाती
उस कीड़े की परछाईं को
सुबह होने तक
भूख से तड़प कर
दम तोड़ चुकी होती है
बिचारी छिपकली
कभी कभी
मुझे डर लगने लगता है
कि कहीं तुम्हारी याद
फेरबदल ना कर दे
होश,नींद और मेरे
जीवन-चक्र मे
Sunday, March 27, 2011
Friday, March 18, 2011
अमन के रंग से रंग दें चलो इस बार की होली
Wednesday, March 2, 2011
नींदें

बचपन की नींदें भी
कितनी मीठी हुआ करती थीं
आँखें मूंद लो तो पिछला सब गुम
और फिर एक
बिल्कुल नया ख्वाब उतरता था
रंग-बिरंगे होते थे जिसके पंख
जो काली नींद को
कभी लाल,कभी हरा
तो कभी
गुलाबी रंग दिया करते थे
आँखों के ऊपर
ऐसे मिंच जाती थी पलकें
कि बाहरी दुनिया की
एक भी चीज़
दाखिल नही हो पाती थी
हमारी ख्वाबगाह मे
ख्वाब के बाद
जब अगले रोज़
खुलती थी आँखें
तो गुज़रे दिन के
सारे तजुर्बो को
एक कोने मे समेटकर
दिमाग़ की तख़्ती
फिर से हो जाती थी ताज़ा
इस रोज़ के
नये तजुर्बो के
लिखे जाने के लिए
मगर जैसे जैसे
बढ़ी उम्र
ढीली पड़ती गयी
आँख से
पलकों की पकड़
और एक एक कर
सारी हक़ीक़तें
घुस गयीं भीतर
धीरे धीरे
पूरी ख्वाबगाह
दब गयी है
हक़ीक़त की
गर्द के नीचे
और अब तो
ये है आलम
कि खुली आँख से ही
सो जाते हैं हम
और बजता रहता है
हक़ीक़तों का शोर
हमारी नींद मे भी
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