बचपन की धुंधली यादों मे से
एक याद ये भी है
कि गर्मी की रातों मे
घर की छत पर
जब हवा का जी नही होता था
बहने का
तो माँ अपने बगल मे लिटाकर
हमे हाथ वाले पंखे से
करती थी हवा
और बस कुछ ही देर मे
रूठी हुई नींद
फिर से बन जाती थी
हमारी दोस्त
यूँ तो हमेशा ही वो गहरी नींद
सुबह माँ के सहलाते हुए
हाथों से ही खुलती थी
मगर कभी कभार
जब आधी रात को
यूँ ही खुल जाती थी आँख
तो मैं देखता था
माँ की तरफ
मुंदी होती थीं माँ की आँखें
मगर फिर भी
माँ के हाथ का वो पंखा
हिलता रहता था हमारी ओर
माँ सो भी रही होती है जब
तो भी जागता रहता है
उसका मातृत्व
Thursday, October 20, 2011
Friday, September 23, 2011
दुनिया है बाज़ार समझ लो
जीवन का ये सार समझ लो
जीना है दुश्वार समझ लो
आँगन आँगन धूप क़ैद है
ऐसा ये संसार समझ लो
सीरत छुपी हुई है भीतर
सूरत के उस पार समझ लो
छुपा के रखना चोर बहुत हैं
आँखों के उजियार समझ लो
ख्वाब तुम्हे परखेगा पहले
तब होगा साकार समझ लो
दूर ही रखना आग की सच से
है कपूर सा प्यार समझ लो
वक़्त के पहले भरना बेहतर
छोटी अभी दरार समझ लो
पकड़ के रखना भव सागर मे
मन की ये पतवार समझ लो
ईमानों को बेच ना देना
दुनिया है बाज़ार समझ लो
जीना है दुश्वार समझ लो
आँगन आँगन धूप क़ैद है
ऐसा ये संसार समझ लो
सीरत छुपी हुई है भीतर
सूरत के उस पार समझ लो
छुपा के रखना चोर बहुत हैं
आँखों के उजियार समझ लो
ख्वाब तुम्हे परखेगा पहले
तब होगा साकार समझ लो
दूर ही रखना आग की सच से
है कपूर सा प्यार समझ लो
वक़्त के पहले भरना बेहतर
छोटी अभी दरार समझ लो
पकड़ के रखना भव सागर मे
मन की ये पतवार समझ लो
ईमानों को बेच ना देना
दुनिया है बाज़ार समझ लो
Saturday, August 20, 2011
गाँधी टोपी वाले एक सिपाही ने

किसने नींद उड़ाई दिल्ली वालों की
गाँधी टोपी वाले एक सिपाही ने
किसने अलख जगाई कुछ कर जाने की
गाँधी टोपी वाले एक सिपाही ने
अपने प्यारे भारत की बुनियादों मे
पनप रही है दीमक भ्रष्टाचारों की
लेकिन एक हज़ारे की आवाज़ों पर
जुट आई है देखो भीड़ हज़ारों की
किसने छोड़ के फूलों का पथ इच्छा से
देश की खातिर राह चुनी अंगारों की
गाँधी टोपी वाले एक सिपाही ने
गाँधी टोपी वाले एक सिपाही ने
पिरो दिया है एक सूत्र मे भारत को
इससे पहले तो बस सबने बाँटा है
भाँति भाँति के भेदभाव मे भारत को
किसने दिखा दिया कि गर हम एक हों तो
तोड़ नही सकता है कोई भारत को
गाँधी टोपी वाले एक सिपाही ने
चेहरे पर मुस्कान है जिसके सच्ची सी
मन मे एक विश्वास बड़ा ही पुख़्ता है
देश की हालत देख के जिसके सीने मे
दर्द बड़ा ही गहरा कोई उठता है
किसने अपनी करनी से ये दिखा दिया
सत्य अहिंसा से पर्वत भी झुकता है
गाँधी टोपी वाले एक सिपाही ने
किसने नींद उड़ाई दिल्ली वालों की
गाँधी टोपी वाले एक सिपाही ने
किसने अलख जगाई कुछ कर जाने की
गाँधी टोपी वाले एक सिपाही ने
Wednesday, August 17, 2011
गुलज़ार

तुमने
एक पूरा बगीचा
उगाया हुआ है
अपने भीतर
अपनी बागवानी से
पैदा की हैं
फूलों की नयी नयी किस्में
जादू है तुम्हारे हाथों मे
जो हर बार
फूलों मे
नया रंग भर देता है
कौन सा पानी देते हो इन्हे
कैसी है वो मिट्टी
जहाँ पनपते हैं
ये फूल
तुम
जो भी लिख देते हो
वो फूल सा महकने लगता है
और उसकी वो महक़
इतनी ख़ास होती है
हमारे लिए
कि दुनिया भर के
इत्र
फीके पड़ जाते हैं
उस महक़ के आगे
हो भी क्यूँ ना
सुखन के गुलों के
बादशाह हो तुम
बाकी सब तो सब हैं
मगर गुलज़ार हो तुम
किसी रोज़
अपने बगीचे के
किसी भी पौधे से
एक कलम काटकर
मेरे भी सीने मे
बो देना............
(GULZAR SAAB KO JANMDIN KI BAHUT BAHUT BADHAI)
Tuesday, August 9, 2011
ग़ज़ल
आरज़ूएँ तमाम करता है
मन भी कैसा गुलाम करता है
ख्वाब लाता है हर इक रोज़ नये
सुक़ूँ का क़त्ल-ए-आम करता है
बात जब भी करे तो चिंगारी
गुफ़्तगू कब ये आम करता है
हमे तो पूछता नही दिन भर
वो जो आएँ सलाम करता है
मेरी आँखों से चुराकर नींदें
जाने किस किस के नाम करता है
गर कभी मुश्किलों मे हो जाँ तो
रात दिन राम राम करता है
मन भी कैसा गुलाम करता है
ख्वाब लाता है हर इक रोज़ नये
सुक़ूँ का क़त्ल-ए-आम करता है
बात जब भी करे तो चिंगारी
गुफ़्तगू कब ये आम करता है
हमे तो पूछता नही दिन भर
वो जो आएँ सलाम करता है
मेरी आँखों से चुराकर नींदें
जाने किस किस के नाम करता है
गर कभी मुश्किलों मे हो जाँ तो
रात दिन राम राम करता है
Tuesday, July 26, 2011
मगर सूरज चाय नही पीता
हम तो उठते ही
सुबह सुबह पी लेते हैं चाय
करने के लिए दूर
रात की खुमारी को
मगर सूरज
चाय नही पीता
तो जानती हो
वो कैसे भगाता है
अपनी अधखुली आँखों से
बची-खुची नींद को
उठने के साथ साथ
वो सबसे पहले चूमता है
तुम्हारा माथा
अब समझ आया
कि अभी जब
सुस्ता ही रहा होता है
अंधेरा
मोहल्ले के बाकी घरों मे
तो कैसे तुम्हारी खिड़की पर
खेलने लगती हैं
ऊषा की किरणें
क्योंकि
तुमसे ही पाता है
सूरज
अंधकार से
लड़ने की ऊर्जा
सुबह सुबह पी लेते हैं चाय
करने के लिए दूर
रात की खुमारी को
मगर सूरज
चाय नही पीता
तो जानती हो
वो कैसे भगाता है
अपनी अधखुली आँखों से
बची-खुची नींद को
उठने के साथ साथ
वो सबसे पहले चूमता है
तुम्हारा माथा
अब समझ आया
कि अभी जब
सुस्ता ही रहा होता है
अंधेरा
मोहल्ले के बाकी घरों मे
तो कैसे तुम्हारी खिड़की पर
खेलने लगती हैं
ऊषा की किरणें
क्योंकि
तुमसे ही पाता है
सूरज
अंधकार से
लड़ने की ऊर्जा
Sunday, June 26, 2011
ग़ज़ल
होश की देहरी पार हुई कब क्या मालूम
उनसे आँखें चार हुई कब क्या मालूम
जिस सूरत पर मर बैठे हम क्या जानें
क्या थे उसके ज़ात-ओ-मज़हब क्या मालूम
यूँ तो याद नही आता है गुनाह कोई
रूठ गया क्यों मुझसे वो रब क्या मालूम
याद है बस इतना कि तू था ख्वाबों मे
कैसे गुज़री रात कहाँ कब क्या मालूम
चैन की नींदें होश के छींटें और सुकून
कैसे उसने लूटा ये सब क्या मालूम
धुन जब लागी यार से जाके मिलने की
कैसे दरिया पार हुआ कब क्या मालूम
उनसे आँखें चार हुई कब क्या मालूम
जिस सूरत पर मर बैठे हम क्या जानें
क्या थे उसके ज़ात-ओ-मज़हब क्या मालूम
यूँ तो याद नही आता है गुनाह कोई
रूठ गया क्यों मुझसे वो रब क्या मालूम
याद है बस इतना कि तू था ख्वाबों मे
कैसे गुज़री रात कहाँ कब क्या मालूम
चैन की नींदें होश के छींटें और सुकून
कैसे उसने लूटा ये सब क्या मालूम
धुन जब लागी यार से जाके मिलने की
कैसे दरिया पार हुआ कब क्या मालूम
Sunday, March 27, 2011
जीवन-चक्र
होश एक कीड़ा है
और नींद छिपकली
मौका पाते ही
निगल जाती है
चट से
मगर कभी कभी
जब होश पी लेता है
तुम्हारी याद
तो बिचारी छिपकली
लाख पैतरों के बावज़ूद
छू भी नही पाती
उस कीड़े की परछाईं को
सुबह होने तक
भूख से तड़प कर
दम तोड़ चुकी होती है
बिचारी छिपकली
कभी कभी
मुझे डर लगने लगता है
कि कहीं तुम्हारी याद
फेरबदल ना कर दे
होश,नींद और मेरे
जीवन-चक्र मे
और नींद छिपकली
मौका पाते ही
निगल जाती है
चट से
मगर कभी कभी
जब होश पी लेता है
तुम्हारी याद
तो बिचारी छिपकली
लाख पैतरों के बावज़ूद
छू भी नही पाती
उस कीड़े की परछाईं को
सुबह होने तक
भूख से तड़प कर
दम तोड़ चुकी होती है
बिचारी छिपकली
कभी कभी
मुझे डर लगने लगता है
कि कहीं तुम्हारी याद
फेरबदल ना कर दे
होश,नींद और मेरे
जीवन-चक्र मे
Friday, March 18, 2011
अमन के रंग से रंग दें चलो इस बार की होली
Wednesday, March 2, 2011
नींदें

बचपन की नींदें भी
कितनी मीठी हुआ करती थीं
आँखें मूंद लो तो पिछला सब गुम
और फिर एक
बिल्कुल नया ख्वाब उतरता था
रंग-बिरंगे होते थे जिसके पंख
जो काली नींद को
कभी लाल,कभी हरा
तो कभी
गुलाबी रंग दिया करते थे
आँखों के ऊपर
ऐसे मिंच जाती थी पलकें
कि बाहरी दुनिया की
एक भी चीज़
दाखिल नही हो पाती थी
हमारी ख्वाबगाह मे
ख्वाब के बाद
जब अगले रोज़
खुलती थी आँखें
तो गुज़रे दिन के
सारे तजुर्बो को
एक कोने मे समेटकर
दिमाग़ की तख़्ती
फिर से हो जाती थी ताज़ा
इस रोज़ के
नये तजुर्बो के
लिखे जाने के लिए
मगर जैसे जैसे
बढ़ी उम्र
ढीली पड़ती गयी
आँख से
पलकों की पकड़
और एक एक कर
सारी हक़ीक़तें
घुस गयीं भीतर
धीरे धीरे
पूरी ख्वाबगाह
दब गयी है
हक़ीक़त की
गर्द के नीचे
और अब तो
ये है आलम
कि खुली आँख से ही
सो जाते हैं हम
और बजता रहता है
हक़ीक़तों का शोर
हमारी नींद मे भी
Friday, February 25, 2011
देव आनंद (बॉलीवुड series)

उत्साह का
अथाह सोता है
तुम्हारे भीतर
जिसके सामने
खुद वक़्त भी
हो जाता है नतमस्तक
क्योंकि
तुम्हारी जीवंतता मे तो
वो भी नही पैदा कर सका
एक भी झुर्री
सिनेमा के उस छोर से
इस छोर तक
किसी गाइड की तरह
तुम्हारी उपस्थिति
जीने की जिजीविषा
पैदा करती है
हमारे भीतर
रुपहले पर्दे पर
अपने ही अंदाज़ मे
निभाए हुए
तुम्हारे किरदारों को देखना
हर बार
भर जाता है हमे
आनंद से भरपूर
अनुभवों से
जीवन के
इस अथक प्रेम पुजारी
देव आनंद साहब को
मेरा सलाम
Wednesday, February 23, 2011
मधुबाला(१४/०२/१९३३-२३/०२/१९६९) (बॉलीवुड series)

यूँ तो
हर तरह की भूमिकाएँ
की हैं तुमने
मगर इतने दशकों बाद भी
तुम्हारी जो तस्वीर
अभी तक बूढ़ी नही हुई
और ज़िंदा है
हमारी याददाश्त मे
अपने चिर यौवन के साथ
वो तुम्हारे
होंठों के कोनो से
छलकती हुई
मुस्कान की है
तमाम रंग और तकनीकें
जो ईज़ाद हुए
तुम्हारे जाने के बाद
वो सब
पड़ जाते हैं फीके
तुम्हारी एक
भरपूर ब्लॅक एंड व्हाइट
मुस्कान के आगे
Monday, February 21, 2011
ट्रॅजिडी क्वीन (बॉलीवुड series)
Saturday, January 15, 2011
है बावरा ये मन तो पानी कभी धुआँ है
ये दिल है की शैतां है
पागल है परेशां है
बहता है तो दरिया है
उड़ता है तो तूफान है
होता है कभी गुम तो
मिलता नही कहाँ है
खुद मे समेट रखा
इसने ये सब जहाँ है
जलता है इस तरह कि
होता नही धुआँ है
जो आ गया किसी पे
तो उसपे मेहरबाँ है
जो रूठ गया तो फिर
मुश्किल मे समझो जाँ है
नाराज़ हो तो सहरा
खुश हो तो गुलिस्ताँ है
जो गिर गया वो जाना
गहरा बड़ा कुआँ है
पगली सी इसकी बातें
पगली सी इक जुबां है
करना ना तुम भरोसा
पछताओगे जुआँ है
है बावरा ये मन तो
पानी कभी धुआँ है
पागल है परेशां है
बहता है तो दरिया है
उड़ता है तो तूफान है
होता है कभी गुम तो
मिलता नही कहाँ है
खुद मे समेट रखा
इसने ये सब जहाँ है
जलता है इस तरह कि
होता नही धुआँ है
जो आ गया किसी पे
तो उसपे मेहरबाँ है
जो रूठ गया तो फिर
मुश्किल मे समझो जाँ है
नाराज़ हो तो सहरा
खुश हो तो गुलिस्ताँ है
जो गिर गया वो जाना
गहरा बड़ा कुआँ है
पगली सी इसकी बातें
पगली सी इक जुबां है
करना ना तुम भरोसा
पछताओगे जुआँ है
है बावरा ये मन तो
पानी कभी धुआँ है
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