Monday, December 6, 2010

सौतने

ख्वाब से हंस बोल लो कुछ पल
तो हकीक़त रूठ जाती है
और हकीक़त के साथ बिताए हुए पल
ख्वाब की आँखों मे
चुभ जाते हैं
दोनो को फूटी आँख नही सुहाती
एक दूसरे की सूरतें
दोनो सौतनें जो ठहरीं
हालाँकि मैं
दोनो को ही देता हूँ
बराबर का वक़्त
फिर भी बराबर बनी रहतीं हैं
दोनो की शिकायतें

कभी कभी
जब दोनो से ही दूर
आँख लग जाती है मेरी
तो आँख खुलने पर
दोनो एक दूसरे के बाल खींचकर
झगड़ती हुई मिलती हैं
कभी ख्वाब के होंठ से
बहता है खून
तो कभी हकीक़त के माथे से
ज़ाहिर है
कि मेरी शर्ट के बटन तो
टूटते ही हैं
इस सबमे
ज़िंदगी
पूरी तरह से
अस्त व्यस्त फैल जाती है
दिमाग़ के कमरे मे

सच मे
ज़िंदगी कितनी खुशरंग हो जाएगी
अगर कभी ये सौतने
गले लग जाएँ
एक दूसरे के