Tuesday, April 28, 2009

दमा

मेरी इस बेचैनी का
हर बार यही परिणाम होता है
या तो किसी ना किसी रूप मे
सामने आ जाते हो तुम
या फिर ज़हन की खिड़की पर
एक लिफाफे मे लपेटकर
चुपचाप एक कविता रख जाते हो

निश्चित तौर पर
दूसरा तरीका(कविता वाला)
पहले के स्थान पर
एक अंशकालिक उपाय भर होता है
उसकी जगह ले सकने वाला
पूरा विकल्प नही
और फिर भी
पिछली कई दफा से
तुमने इस दूसरे तरीके को ही
अपनाया हुआ है

इतना ही नही
अब हर बार,धीरे-धीरे
बढ़ती ही जा रही है
तुम्हारे इस इलाज के
मुझ तक पहुँचने मे
होने वाली देरी भी
अब पिछली बार का ही वाक़या लेलो
उस बार बेचैनी मे
लगभग
साँस ही उखाड़ गयी थी मेरी
तब जाके पहुँची
तुम्हारी भेजी हुई कविता
(सज-धज के,रंगीन लिबास मे)

और साथ ही साथ
कम भी होती जा रही है
इस इलाज़ के बाद
मिलने वेल चैन की अवधि भी

सोचता हूँ की अब तुमसे
निकाह ही कर लूँ
तब जाके शायद
मुझे निज़ात मिल सके
मेरे इस इश्क़िया दमे के
मर्ज़ से..............

Friday, April 24, 2009

ग़ज़ल

सूरज की आँखों मे कैसी लाली है
जगराते मे पिछली रात निकाली है

ऊंघ रहा है अब बादल के पल्लू मे
बादल ने भी उसपे चुन्नी डाली है

रात को चंदा,दिन मे सूरज पकता है
बदला करती आसमान की थाली है

चाँदनी को फिर रात ने है न्योता भेजा
पीले रंग की सारी आज निकाली है

बावरे ने दिन-रात तुम्हारे ख्वाबों मे
जागके अपनी खुशी की उम्र बढ़ा ली है

Monday, April 20, 2009

निर्णय

कभी कभी कुछ निर्णय
सिर्फ़ एक क्षण मे हो जाते हैं
उस क्षण मे
उस चीज़ को पाने की लालसा
बढ़ जाती है इतनी अधिक
कि फिर कुछ नही दिखता है
उसके आगे-पीछे
ना तो दिखती हैं
उस चीज़ को पाने की राह मे
आने वाली दिक्कतें
ना ही दिखते हैं
इस निर्णय से असंतुष्ट
परिवार वालों के
बिगड़ते हुए चेहरे
और ना ही दिखती हैं
लोगों की उठती हुई उंगलियाँ
इनमे से कुछ नही दिखता
बल्कि एक अजीब सी ही
चीज़ होती है
पाए बिना ही
उस चीज़ को पा लेने की
खुशी के एहसास का
एक छोटा सा हिस्सा
पता नही कौन रख जाता है
मन की जीभ पर
(कुछ कुछ वैसा ही
जैसे हलवाई,
बेचने से पहले
चखने को देता है
थोड़ी सी मिठाई)
एहसास के
इस बहुत छोटे से हिस्से को
नज़रअंदाज़ कर पाना
बहुतों के बस मे नही होता
ख़ासकर आम आदमी के बस मे तो
बिल्कुल नही
(हाँ,किसी मनोयोगी के बस मे
हो सकता है शायद)

मैं भी तो बेहद आम हूँ
एक रोज़
ऐसे ही किसी क्षण मे
तुम्हे पाने के
उस अद्भुत एहसास की आँच मे
तुम्हे पा लेने का
निर्णय कर बैठा हूँ
माफ़ करना
मगर अब इस निर्णय से
परे हट पाना
मेरे बस की बात नही है..............

सांड़

ज़िंदगी के बगीचे मे
घुस आया है
कॅन्सर का सांड़

हैरत इस बात की
कि इतना बड़ा जीव
कब और कैसे आया भीतर
ये किसी को नही मालूम
बगीचे के मलिक को भी नही
वो तो एक रोज़ यूँ ही किसी ने
जब टॉर्च मारकर देखा
तो रात मे सिर्फ़ दो आँखें
टिमटिमाई थीं
आहिस्ता आहिस्ता
यकीन मे बदल गया ये शक़
कि अब उस जिस्म मे
एक बौखलाए सांड़ का बसेरा है

धीरे धीरे उसने
मिटाने शुरू कर दिए
ज़िंदगी के निशान
चेहरे की चमक
आँखों की रोशनी
और होठों की नमी
एक एक करके
बगीचे की हर चीज़
तहस नहस कर दी

ऐसा नही है
कि कोशिश नही की गयी
उसको भगाने या मार गिराने की
बहुत से प्रयत्न हुए
बहुत सी युक्तियाँ भी की गयीं
मगर उसने हमारे हर वार को
बेअसर कर दिया
इन वारों से बौखला कर
उसने और भी तेज़ कर दी
बर्बादी की रफ़्तार

आख़िरकार आज सुबह
जिस्म के सूखे पेड़ से
लटकता हुआ
साँस का आख़िरी गुच्छा भी
उसने नोच लिया
एक बार फिर
जीत गया वो
और हार गयी
हमारी सेवा

सुना है स्पेन मे
कुछ वाहियात लोग
सिर्फ़ अपने शौक के लिए
करते हैं
घायल सांड़ का शिकार
उस बज़ुबान और बेकसूर पर
दिखाते हैं अपनी बहादुरी

अगर वो इस सांड़ की
गर्दन मे चुबा दें नश्तर
तब मानू मैं
उनकी बहादुरी...................

Monday, April 13, 2009

शहर कानपुर

अपने माज़ी मे है गुम,बेज़ार सा है
क्यूँ शहर मेरा बड़ा लाचार सा है

था कभी पूरब का मॅनचेस्टर मगर
शहर मेरा इन दिनो बीमार सा है

कचहरी मे चल रहा जो मुक़दमा
बंद मिल,छूटे हुए रोज़गार का है

खाँसता है मुँह पे रख करके रुमाल
शहर मेरा धूल के गुबार सा है

ज़ुर्म का है बढ़ रहा ओहदा यहाँ
नतीजा ये वर्दियों की हार का है

काम के बदले मिला ठेंगा यहाँ
अंगूठा ये निखट्टू सरकार का है

क्यों सजी है रोशनी इस राह मे
आम ये रस्ता नही,सरकार का है

मर रही है भूख से जनता मगर
सियासती महकमों मे त्योहार सा है

बिजलियाँ हैं गुल जहाँ देखो वहीं
शहर मेरा अमावस की रात सा है

बनाई थी जिसने वो टूटी सड़क
महल ये बस उसी ठेकेदार का है

जैसा भी है पर मुझे ये है अज़ीज़
यूँ समझ लो मेरे पहले प्यार सा है

किस-किस के माथे धरोगे आरोप तुम
बावरा तू खुद भी गुनहगार सा है

गुस्सा

मुश्किल बहुत था
गुस्से को
हलक के नीचे उतार देना
या फिर उसे घूँट पाना
गुस्सा
बार बार कर रहा था ज़िद
जीना चढ़कर
दिमाग़ मे सवार होने की,
और गालियों के लिबास मे
मुँह से बाहर
फुट पड़ने की
मगर फिर भी
उसे पी जाना पड़ा
उस गुस्से को

गुस्सा जो पैदा हुआ था
मालिक की भद्दी गालियों से
गालियाँ,जो पैदा हुईं थीं
उसके हाथ मे खाने की थाली लेकर
फिसल पड़ने से
और फिसलन पैदा हुई थी
उसके एक हमउम्र,बदमिज़ाज़
ग्राहक की थाली से
गिरी हुई जूठनसे

हम और आप
शायद अंदाज़ा भी नही लगा सकते
कि उसने कितनी ताक़त झोंक दी थी
अपने उस गुस्से पे
काबू पाने मे
आख़िर क्या वजह होगी
जो उस गुस्से पे काबू पाना
उसके लिए इतना ज़रूरी हो गया था
जबकि वो भी खूब जानता था
कि मालिक के गुस्से की वजह
सर्वथा नाजायज़ थी

वजह बहुत सीधी थी
कि वो गुस्से से
नही भर सकता था
उनके पेट
जो घर मे भूखे पेट
उसके लौटने की
आस लगाए बैठे थे

क्योंकि
गुस्से और अपमान से
बड़ी होती है भूख
क्योंकि गुस्सा हो सकता है झूठ
मगर भूख
हमेशा सच होती है...........

Thursday, April 9, 2009

मेरा दोस्त

कभी कभी मेरा दोस्त
कैसा चुप सा हो जाता है
और कभी
ऐसी ज़िद,ऐसी उछल-कूद
की दिल काँप जाता है

इसकी और हवा की जोड़ी
बहुत पुरानी है
जब ये होता है गुम्सुम
तो हवा भी
उदास-उदास रहती है
और जब ये चंचल होता है
तो हवा भी
झूमने लगती है
इनका ब्याह नही हुआ अब तक
फिर भी
दोनो खूब समझते हैं
एक दूसरे के
मन की बात

इनका एक और भी दोस्त है
चाँद
अक्सर ये तीनो
रात को
महफ़िल जमाते हैं
उस रोज़ मेरा दोस्त
खूब शोर करता है
और सुबह होने तक
लड़खड़ाता
और डगमगाता हुआ
चलता है

मेरा दोस्त
मेरी दी हुई सारी चीज़ें
बहुत समहाल के रखता है
अपने भीतर
घर से इतनी दूर
यहाँ पर
एक यही तो है मेरा
इसी के साथ बात करके
मैं दूर करता हूँ
अपना अकेलापन
इसी-से सीखी है मैने
चंचलता और गहराई
समंदर,मेरा दोस्त
मुझे बहुत अज़ीज़ है........

घड़ा

मन के घड़े मे
भरा हुआ था
पानी के रंग का प्रेम
मैं लेकिन
अनजान था इस तथ्य से
कि इसकी तलहटी मे है
एक छोटा सा छेद

जब तक
ज़मीन पर रखा था ये
तब तक सब ठीक था
इसकी मिट्टी भीगी रहती थी
हमेशा प्रेम से

लेकिन ऊँचा उठने की चाह मे
पता ही नही चला
कि कब रिस गया
वो सारा प्रेम

अब,जबकि मैं
आसमान पे हूँ लगभग
तब पाया है
कि इसमे भर गया है
एक काला अहम
ये बहुत गाढ़ा है
इसीलिए रिस्ता भी नही
चिपक रहा है
घड़े की भीतरी दीवारों पर
कैसा अज़ीब सा लगता है
घिन सी आती है

मेरे कुम्हार
अब तोड़ दो ये घड़ा
और इसकी मिट्टी को
फिर चढ़ाओ चाक पर
मगर इस बार
इसमे अहम के घुसने की
कोई जगह मत छोड़ना
और ना ही रखना
प्रेम के रिसने का
कोई भी छेद..........

मौसमी तहज़ीब


बारिश अभी बहुत दूर है
फिर क्यों इन आँखों ने
टपकना शुरू कर दिया है
अभी से.......
तुम तो
बड़ा ख़याल रखते हो ना
मौसमों का
बेमौसम
कभी नही आते
ज़रा
अपनी इस याद को भी
सिखा दो
यही मौसमी तहज़ीब......

धुआँ

धुएँ मे जल रही हैं साँसें
और साँसों मे
पल रहा है धुआँ
एक साँस से दूसरी साँस तक
मैं पहुँचता हूँ
इसी धुएँ के
पुल से होकर

धुआँ नही
तो साँस नही
और साँस नही
तो मेरा वज़ूद भी धुआँ
अब तो
साँसें बोता भी यही है
और उखाड़ता भी है
यही धुआँ

पहले जब तुम थी
तो कैसे डर-डर के
चोरी छिपे आता था ये
लेकिन तुम्हारे जाने के बाद से
दिन रात
यहीं पड़ा रहता है

एक बार फिर
तुम आकर
इसको डाँट दो
सिर्फ़ तुम्हारे पास ही है
इसका औज़ार
मेरी बाजुओं से
इसकी गिरफ़्त के
फंदे काट दो........

कुआँ

बरसों से सूखा पड़ा है
ये कुआँ
दिल के एक कोने मे
शायद किसी बहुत ख़ास के
अनदेखे और अनजाने
स्नेह के अभाव मे
मैं खुली आँख से चलता हूँ
तब भी
जब-तब गिर जाता हूँ
इसी कुएँ मे
अंदर से
और भी अधिक लगता है डरावना
ये कुआँ
जब मेरी ही आवाज़ें
लौट-लौट कर आती हैं
मेरे पास
तब अकेले रहने का अहसास
और भी हो जाता है गहरा


कोई भी तो नही उतरा
आज तक
इसके भीतर
बस एक तुम्हारे सिवा
मुझे आज भी याद है साफ-साफ
जब इसकी मुंडेर से
एडियाँ उचका-कर
तुमने नीचे की ओर देखा था
कैसे तुम्हारे बाल
मेरे और सूरज के बीच आ गये थे
बालों मे छुपा हुआ तुम्हारा चेहरा
बालों से ही छन करआती धूप मे
कभी उजला कभी गहरा
लगता था
जैसे रात और दिन
एक हो गये थे
जैसे शाम की गोद मे
धूप के साए सो गये थे
तुम्हारा ध्यान तो
नीचे की तरफ था
मगर मैने देखा था
कि कैसे सूरज बार-बार
तुम्हारी आड़ से बाहर निकल-कर
मुझे अज़ीब से इशारे कर रहा था
कभी मौका मिले
तो इससे पूछना
की मैं कितना खुश हुआ था
उन दिनो
कैसे-कैसे सपने बोने लगा था

वैसे ये अब
ज़्यादातर चुप ही रहता है
तुम्हारे जाने वेल रोज़ से ही
ऐसा रहने लगा है ये
गुम्सुम,उदास
बात भी नही करता मुझसे
ऐसा लगता है कि मुझसे ज़्यादा दुख तो
इसे हुआ है
हमारे एक ना हो पाने का

अब ये सूरज इधर नही आता
इसीलिए इस कुएँ मे
अब काई जमने लगी है
और सीलन भी बढ़ रही है
बहुत अज़ीब सा लगता है अब यहाँ
लेकिन फिर भी मैं
जब-तब गिर जाता हूँ
इसी कुएँ मे
और वहीं पड़ा रहता हूँ
बड़ी देर तक

अब सोच रहा हूँ
कि एक रोज़
किसी को बुलवाकर
मिट्टी से पटवा दूं
यादों के इस कुएँ को.........

दुधमुँही नज़्म

नज़्म अभी दुधमुँही थी
ख़याल के रूप मे
अभी-अभी पैदा हुई
उसके पलने और बढ़ने के लिए
ज़रूरी था कि उसे मिले
शब्दों का दूध
और वही तो ढूँढ रहा था मैं
घर के हर कोने मे
हर बर्तन मे
लेकिन कभी-कभी
पता नही क्या हो जाता है मुझे
कि मैं उसे कहीं रखकर
भूल जाता हूँ
और फिर उस शब्दों के भगोने को
ढूँढ नही पाता
ढूँढ भी लेता था शायद
अगर उसी वक़्त
किसी ने बाहर की दुनिया से
मेरा नाम नही लिया होता तो
और मैं चला गया बाहर
दुधमुँही नज़्म को
बिस्तर पर ऐसे ही छोड़कर
ये सोचकर
कि बस
अभी आ जाऊँगा लौटकर

ठीक-ठीक याद नही
कि कितनी देर बाद लौटा मैं
मगर जब लौटा
तो वो उसे ले जा रहे थे
सफेद चादर मे ढक-कर
आख़िरी बार
बस कुछ देर के लिए दिखाया गया
मुझे उसका चेहरा
पता नही
कितनी देर तक तड़पती रही होगी
वो भूख से
आँखें बाहर को आ गयीं थीं
और होंठ
अज़ीब से रंग के हो गये थे
उसके

कहीं भी नही लिखी गयी
इस घटना की रपट
ना जाने
ऐसी कितनी नज़मों के कतलों का
इल्ज़ाम है मेरे सिर पर
और फिर भी
देखो ना किस तरह
खुले-आम घूम रहा हूँ मैं

इसी तरह से
ना जाने कितने दुधमुहों की
रोज़ होती है मौत
हमारे देश मे

Monday, April 6, 2009

मेरी किस्मत संवार जाए

मुझे बिंदी बनाकर तुम,लगा लो अपने माथे पे
मेरा भी मान बढ़ जाए,तेरा भी रूप खिल जाए

बनाकर फूल मुझको तुम,लगा लो जुल्फ मे अपनी
मुझे आशियाँ मिल जाए,तुम्हारी जुल्फ इतराए

मुझे पिघला के कंगन मे,पहन लो हाथ मे अपने
मुझे भी चैन मिल जाए,तेरी छन-छन संवर जाए

बड़ी है आरज़ू तेरे,गले का हार बनने की
अगर देखे तुझे जो वो,फलक का चाँद जल जाए

अगर कुछ भी नही तो फिर,बनालो आँख का काजल
मुझे हर वक़्त तू अपनी,नज़र के पास ही पाए

अगर ये भी नही तो फिर,करो इतना तो कम से कम
बनाकर धूल ही रख लो,मेरी किस्मत संवर जाए

ग़ज़ल

आज-कल वो हर जगह,हरदम ही रहती है
पर नही मिलती है तो ,उलझन सी रहती है

उसके ना मिलने से है ये दिन बड़ा गुमसूम
सहर अब बदरंग शब बेदम सी रहती है

चाहता हूँ मैं की पिघलें पर ये पीड़ाएँ
इन दिनो सीने मे बिल्कुल जम सी रहती है

वक़्त ने चाहा तो शायद मिल भी जाएँ पर
गुंजाइशें अपने भले की कम ही रहती है

माँग लेता तुझको मैं किस्मत से भी लेकिन
किस्मतों से पर मेरी अनबन सी रहती है

चाँद को अब चाँदनी से इश्क़ है ज़्यादा
रात उसके घर मे अब सौतन सी रहती है

बावरा हर घड़ी भरता जोश अपने आप मे
क्यूँ मगर उम्मीद फिर भी कम सी रहती है

विवाद

हर विवाद को
एक आशा होती है
उसके सुलझ जाने की
पर वो,ये भूल जाता है
की उसका नाम ही है विवाद
उसका तो जन्म ही
सिर्फ़ इसलिए हुआ है
की उसे ज़िंदा रक्खा जा सके
क्योंकि उसके सुलझ जाने से
बरसों से चले आ रहे
राजनैतिक लाभ का
पल भर मे हो सकता है अंत

विवाद को
सिर्फ़ ज़िंदा रखा जाता है
उसकी भूख नही मिटाई जाती
और जब किसी विवाद के सहारे
हथिया ली जाती है सत्ता
तो उसे यूँ ही छोड़ दिया जाता है
भूखा,बेहोशी की हालत मे

और फिर जब
राजकीय भोग की अवधि
समाप्त होने लगती है
तो छिड़के जाते हैं
उसके चेहरे पर पानी के छींटे
(अगर उसमे जीवन का कोई अंश
अब भी बाकी हो तो)
और उसे पहनाया जाता है
नया लिबास
वो फिर हो लेता है उनके साथ
इस उम्मीद मे
कि शायद इस बार
उसकी अनदेखी ना हो
मगर उसकी ये उम्मीद
हर बार
बेकार साबित होती है

हर विवाद की
इंसान की ही तरह
होती है एक उम्र
जिसके बाद
वो खुद ही
छोड़ देता है साहस
और तोड़ देता है दम

ऐसे ही ना जाने
कितने भूखों-मरे
विवादों की लाशें
अब भी प्रतीक्षा मे हैं
अपने अंतिम संस्कार की..........

तुम्हारे इनकार के बाद.

उस दिन जब तुमने
साफ साफ शब्दों मे कहकर
उम्मीद के रोशनदान की
आख़िरी झिर्री भी बंद कर दी थी
उस दिन हमारे रिश्ते के
हाथ की नब्ज़ से
देर तक बहा था ख़ून
और फैल गया था
मन की दीवार पर हर कहीं
और मैं कितने ही दिनो तक पड़ा रहा था
उसी खून मे लत-पथ
फिर जब होश आया
तो इस डर से
की कहीं कोई मेरी आँखों मे ना देख ले
इस खून के छींटे
मैने खूब धोए थे
मन की दीवार और फर्श
लेकिन दीवार के एक हिस्से पर
खून के छींटे इतने सख़्त थे
की लाख धोने पर भी नही गये
और हारकर मैने
वहाँ एक तस्वीर टाँग दी थी

आज मुझे
उस तस्वीर के फ्रेम के नीचे
फिर दिखा खून
जैसे ही मैने
तस्वीर थोड़ी सी खिसकाई
तो एकदम से उमड़ पड़ा
बरसों से रिस रहा खून
और मेरे हाथ
एक बार फिर हो गये हैं लाल

ज़िंदगी का ये ज़ख़्म
शायद कभी नही भरेगा
मगर तुम फ़िक्र मत करना
मेरा वादा अब भी कायम है
की इस खून का कोई भी छींटा
कभी उड़-कर नही पहुंचेगा
तुम्हारी हरी-भरी ज़िंदगी के
आस-पास भी..............

ज़रूरत

स्याही की बोतल मे
भरा हुआ है
तुम्हारा रूप

रोज़ भरता हूँ
अपनी कलम
और काग़ज़ पे
लिख देता हूँ
तुम्हारा नाम
खुश हो जाता है
काग़ज़
पर मेरी बेचैनी
कम नही होती

एक दिन
जाने क्या सोचकर
मैने भी पी ली
यही स्याही
मगर
होंठ नीले पड़ गये
और आँखों मे
छा गया अंधेरा

बेचैनी
फिर भी नही गयी
और जाती भी कैसे
इंसान और काग़ज़ की ज़रूरतें
अलग अलग होती हैं ना................

बावरे को कुछ याद नही

उड़ते उड़ते टुकड़े हैं कुछ,हिस्सा कोई खास नही
मुझको अब भी गम होता है,क्यूँ तू मेरे पास नही

पहले तो किस्से तेरे दिन रात सुनाया करता था
एक सदमे मे खो बैठा है,अब इसकी आवाज़ नही

यूँ तो ज़ख़्मों के ऊपर,फिर चढ़ आया है माँस नया
अब भी सीने मे अटकी है,तेरे ग़म की फाँस कहीं

जाते-जाते इतना तो,दे दे मेरी तन्हाई को
तेरा चेहरा देख के गुजरूँ,दूजी कोई आस नही

हर लम्हा तेरी यादों मे धुआँ धुआँ सा रहता हूँ
प्रेम टपकता हो जिनसे,ऐसे भीगे लम्हात नही

जब से तेरा संग छूटा है,मुझको ये दिखती ही नही
तेरे संग ही रख भूला हूँ,मैं अपनी परवाज़ कहीं

कौन से जुर्म की माफी माँगी है तुमने ये तो कह दो
ये तो सब कुछ भूल चुका है,बावरे को कुछ याद नही

सर्वेक्षण

मेरे शहर की सड़कों पर
घर से दफ़्तर जाते वक़्त
या फिर लौटते हुए
लोगों को हर दूसरे दिन
दिखाई पड़ती है
किसी ट्रक के द्वारा रौंदे हुए
एक कुत्ते की लाश
वहीं दूसरी तरफ
लगभग कोई चार दिन के बाद ही
दिखती है
भीड़ से घिरी
किसी आदमी की लाश

सरकार की तरफ से
निजी चैनेलों के द्वारा कराए गये
इस सर्वेक्षण के नतीजे साफ हैं
कि अभी भी हमारे शहर मे
इंसानी ज़िंदगी
पुर दो गुना से भी
ज़्यादा बेहतर है
एक कुत्ते की ज़िंदगी से............

व्यसन

मेरे व्यसन के काले साँपों ने
मुझे क़ैद कर रक्खा है
अपनी जकड़ मे
ना जाने कितने ही
असंख्य साँपों ने
कस रक्खे हैं फंदे
मेरी कलाईयों पर
मेरे पैरों पर
और मेरे गले के चारों ओर

जब कभी
तीव्रतर होने लगती है
कोई इच्छा
तो और भी ज़्यादा कस जाते हैं
ये फंदे
कभी-कभी तो इतने ज़्यादा
की खून का प्रवाह रुक जाता है
और सफेद पड़ता मेरा जिस्म
पसीने से
तर-बतर हो जाता है
तब जाके कहीं
थोड़ी सी ढीली पड़ती है
पैर की फाँस
मैं लगभग
बहकते कदमों से पहुँचता हूँ
अपनी इच्छा-पूर्ति के स्थान पर
और तब
जैसे-जैसे पूरी होती है इच्छा
वैसे -वैसे ढीले पड़ जाते हैं
सारे फंदे
और कुछ ही देर मे
मैं पूरी तरह से
मुक्त हो जाता हूँ
इनकी पकड़ से

मगर इसके ठीक बाद ही
मैं जैसे ही मुड़ता हूँ
मुँह खोले एक बहुत बड़ा डरावना साँप
जहर भरे अपने दो दाँत
गड़ा देता है मेरे जिस्म पर
पता नही कब तक
मैं उस आत्म-ग्लानि का दंश
झेलता रहता हूँ
लेकिन तब उन काले साँपों मे से
कोई नही आता
मेरी मदद के लिए...................

नसबंदी

हर कवि
कविता रचने के दौरान
गुज़रता है
कविता के पैदा होने की
प्रसव पीड़ा से

कविता पूरी होने के बाद
जब वो पहली बार देखता है
काग़ज़ पर अंगड़ाई लेती हुई
पूरी कविता को
तो उसकी आँखों मे तैरती खुशी का चेहरा
हू-ब-हू मिलता है
एक ही पल पहले बनी
माँ की आँखों की खुशी से

गनीमत है की अब तक
सरकार ने इसपर
नही जारी किया है
कोई फरमान नसबंदी का..............

Saturday, April 4, 2009

लाल बिंदी

याद है दिन वो
लाल रंग की साड़ी पहने
जब तुमने मेरी चौखट पर
पाँव धरे थे
मैने तुमको वहीं रोक-कर
कहा था तुमसे
कमी है कुछ तो
रूप अभी पूरा ये नही है
फिर मैने सूरज के रंग की
बिंदी रख दी थी तेरे
माथे के बीचों-बीच मे बिल्कुल
तेरे रूप की एक लालिमा
छिटक गयी थी मेरे मुख पर

तुम तो लौट गयी थी
बस कुछ देर ठहर-कर
लेकिन अब भी बिंदी वो
आईने पर चिपकी है मेरे
वक़्त हाथ पर ठोडी रख-कर
तकता रहता है बस इसको
सूरज चंदा सबको छुट्टी देके इसने
बंद कर लिया है खुद को
मेरे कमरे मे
एक बार तुम आकर इसको
फिर से पहन लो
शायद फिर से
मेरी उम्र का पहिया चल दे...............

तुम्हारा असर

तेरी हथेली की ये छुवन थी
या जैसे ठंडी हवा का झोंका गुज़र रहा था
ज़मीं मे गहरी धँसी जड़ों मे
कहीं से पानी उतार रहा था

तुम्हारी बातों का ये असर था
या जैसे पूनम के चाँद ने फिर
कहा था दरिया के कान मे कुछ
जो बांवला हो उमड़ रहा था
तुम्हारे आने की आहटों पे
ज़मीं पे बिखरा तमाम मौसम
लिबास अपना बदल रहा था


तुम्हारी पलकों का ही था खुलना
या जैसे अन्धेरे इक शहर मे
उजाला फिर से बिखर रहा था
बहुत पुराना सा ख्वाब कोई
हक़ीकतों मे बदल रहा था

वो तेरे आँचल का था सरकना
या लाज के चेहरे का था घूँघट
जो धीरे-धीरे पिघल रहा था.

ये मेरे मन की बेचैनी ही थी
या स्याह जंगल मे था हिरण इक
तलाश मे बिछड़े यार की जो
हर एक पत्ता उलट रहा था...............

ठंड

घर से दूर
यहाँ ठंड मे
जब चलती हैं
बर्फ़ीली हवाएँ
तो मेरे सारे दोस्त
ढक लेते हैं खुद को
अपनो के ख़यालों मे

मेरे पास भी है
तुम्हारी यादों के
ऊन के गोले
लेकिन जब भी बुनता हूँ
अपने लिए स्वेटर
तो गला छूट जाता है
और ठंड हमेशा
गले से ही तो घुसती है
मुश्किल से कट रही हैं
इस बार सर्दियाँ

इस बार आऊँ
तो मेरी नाप लेकर
तुम भी मुझे बुन देना
बंद गले का
एक मखमली स्वेटर.......

आवारा मन

सोच के पेड़ को
ज़ोर से हिलाया
मगर ख़यालों का
एक भी पत्ता
हाथ नही आया
मन को मगर
कहाँ चैन था
खाली काग़ज़ का दर्द
उससे देखा ना गया
और उसने
और भी ज़ोर से झकझोरा
सोच के पेड़ को
एक भारी सी टहनी गिरी
मेरे माथे पे
खून देखकर
छुप गया है कहीं
सहम गया है
जानता है
कि फिर डाँट पड़ेगी

इसका मैं क्या करूँ
सारा दिन इधर-उधर
आवारागर्दि करता फिरता है
ख़यालों की आस मे
पत्थर फेंकता रहता है
कहीं पर भी
लोगों की शिकायतें
बढ़ती ही जा रही हैं
लेकिन इसे इतनी समझ कहाँ
इसका तो इकलौता दोस्त
बस यही एक काग़ज़ है ना
जिसका ख़ालीपन
इससे बर्दाश्त नही होता...........

और भी मुश्किल होता है

दो-धारी तलवार पे चलना मुश्किल होता है लेकिन
तेरे हिज़ृ की आग मे पलना,और भी मुश्किल होता है

सोच-समझकर सपने देखो,दुख हैं जुड़ते इनसे ही
ख्वाबों का तामीर मे ढलना,और भी मुश्किल होता है

मुश्किल है सच ग्रहों की गतियों का अंदाज़ लगा पाना
लेकिन तेरे मन को पढ़ना,और भी मुश्किल होता है

जंगल की उस आग पे काबू पाना तो मुश्किल ही है
लेकिन द्वेष की आग का बुझना,और भी मुश्किल होता है

जिन हाथों मे पहले से ही किसी और के रंग चढ़े हों
उन हाथों मे मेहंदी चढ़ना,और भी मुश्किल होता है

यूँ तो हर एक शाम है मुश्किल,लेकिन तेरा ज़िक्र हो जिसमे
ऐसी शामों का तो ढलना,और भी मुश्किल होता है

बिन पैरों के बैसाखी पे चलना मुश्किल है लेकिन
बिन तेरे इक कदम भी चलना,और भी मुश्किल होता है