Saturday, April 4, 2009

लाल बिंदी

याद है दिन वो
लाल रंग की साड़ी पहने
जब तुमने मेरी चौखट पर
पाँव धरे थे
मैने तुमको वहीं रोक-कर
कहा था तुमसे
कमी है कुछ तो
रूप अभी पूरा ये नही है
फिर मैने सूरज के रंग की
बिंदी रख दी थी तेरे
माथे के बीचों-बीच मे बिल्कुल
तेरे रूप की एक लालिमा
छिटक गयी थी मेरे मुख पर

तुम तो लौट गयी थी
बस कुछ देर ठहर-कर
लेकिन अब भी बिंदी वो
आईने पर चिपकी है मेरे
वक़्त हाथ पर ठोडी रख-कर
तकता रहता है बस इसको
सूरज चंदा सबको छुट्टी देके इसने
बंद कर लिया है खुद को
मेरे कमरे मे
एक बार तुम आकर इसको
फिर से पहन लो
शायद फिर से
मेरी उम्र का पहिया चल दे...............

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