Monday, April 6, 2009

ग़ज़ल

आज-कल वो हर जगह,हरदम ही रहती है
पर नही मिलती है तो ,उलझन सी रहती है

उसके ना मिलने से है ये दिन बड़ा गुमसूम
सहर अब बदरंग शब बेदम सी रहती है

चाहता हूँ मैं की पिघलें पर ये पीड़ाएँ
इन दिनो सीने मे बिल्कुल जम सी रहती है

वक़्त ने चाहा तो शायद मिल भी जाएँ पर
गुंजाइशें अपने भले की कम ही रहती है

माँग लेता तुझको मैं किस्मत से भी लेकिन
किस्मतों से पर मेरी अनबन सी रहती है

चाँद को अब चाँदनी से इश्क़ है ज़्यादा
रात उसके घर मे अब सौतन सी रहती है

बावरा हर घड़ी भरता जोश अपने आप मे
क्यूँ मगर उम्मीद फिर भी कम सी रहती है

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