अपने माज़ी मे है गुम,बेज़ार सा है
क्यूँ शहर मेरा बड़ा लाचार सा है
था कभी पूरब का मॅनचेस्टर मगर
शहर मेरा इन दिनो बीमार सा है
कचहरी मे चल रहा जो मुक़दमा
बंद मिल,छूटे हुए रोज़गार का है
खाँसता है मुँह पे रख करके रुमाल
शहर मेरा धूल के गुबार सा है
ज़ुर्म का है बढ़ रहा ओहदा यहाँ
नतीजा ये वर्दियों की हार का है
काम के बदले मिला ठेंगा यहाँ
अंगूठा ये निखट्टू सरकार का है
क्यों सजी है रोशनी इस राह मे
आम ये रस्ता नही,सरकार का है
मर रही है भूख से जनता मगर
सियासती महकमों मे त्योहार सा है
बिजलियाँ हैं गुल जहाँ देखो वहीं
शहर मेरा अमावस की रात सा है
बनाई थी जिसने वो टूटी सड़क
महल ये बस उसी ठेकेदार का है
जैसा भी है पर मुझे ये है अज़ीज़
यूँ समझ लो मेरे पहले प्यार सा है
किस-किस के माथे धरोगे आरोप तुम
बावरा तू खुद भी गुनहगार सा है
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