स्याही की बोतल मे
भरा हुआ है
तुम्हारा रूप
रोज़ भरता हूँ
अपनी कलम
और काग़ज़ पे
लिख देता हूँ
तुम्हारा नाम
खुश हो जाता है
काग़ज़
पर मेरी बेचैनी
कम नही होती
एक दिन
जाने क्या सोचकर
मैने भी पी ली
यही स्याही
मगर
होंठ नीले पड़ गये
और आँखों मे
छा गया अंधेरा
बेचैनी
फिर भी नही गयी
और जाती भी कैसे
इंसान और काग़ज़ की ज़रूरतें
अलग अलग होती हैं ना................
No comments:
Post a Comment
आपकी टिप्पणी हमारे लिए बहुमूल्य है..........