Thursday, August 27, 2009

बोरियत

ये बोरियत
मुझ अकेले की नही है
बल्कि उन तमाम
इंसानों की है
जिनका मान इस वक़्त
उनके साथ नही है
जिनका मन
देह के ना जाने कौन से
भीतरी कोने मे जाके
दुबक गया है

जैसे कभी कभी
चिड़ियाघर का मंगल
(कानपुर के चिड़ियाघर के बनमानुष का नाम)
अपने बाड़े के भीतर
सुरक्षित स्थान मे चला जाता है
(जहाँ उसे खाना दिया जाता है)
देखने वाले
उसे बाहर बुलाने के लिए
तरह तरह के
प्रयत्न करते हैं
जैसे आवाज़ें करना
पत्थर फेंकना
(ये सब अपराध हैं,ध्यान रहे)
मगर खाना खाकर
सुस्ताते मंगल को
उठा पाना
इतना आसान नही होता

कुछ इसी तरह से
एक ओर मुँह करके
पसर गया है
मेरा मन
दिक्कत ये है
कि शरीर जाग रहा है
अब भी

बोरियत अलग है
दुख से
और कभी कभी
दुख से भयानक भी
बोर आदमी
ना तो किसी को याद करता है
और ना ही
उसे किसी की
याद ही आती है
बोरियत मे
शायद शिथिल हो जाता है
यादों के सिग्नल को
आदान-प्रदान करने वाला
सूचना-तंत्र

बोरियत
सुख और दुख के बीच की
एक ऐसी
भावहीन अवस्था है
जिसमे हम और आप
जैसे लोग
ज़्यादा देर नही रह सकते

हाँ,
पर कुछ महान लोग होते हैं
जो बोरियत की
इस अवस्था मे भी
घंटों,बगैर विचलित हुए
रह सकते हैं
उदाहरण के तौर पर
सरकारी दफ़्तर के वो बाबू
जिनका चश्मा
सीधी रेखा से
45 डिग्री का कोण बनाते हुए
फाइलों की ओर
झुका रहता है
उनके सामने आप
कितनी ही नाक रगड़ लो
मगर उनकी कलम
अघोषित तय दाम के
चुकता होने से पहले
आपके काग़ज़ पर
एक चींटी जितना भी
नही रेंगती
ये उनकी बोरियत के
स्थायित्व का
साक्षात उदाहरण है
बोरियत मे शायद
ख़त्म हो जाता है
''अचरज'' का भाव

अरे अरे ये क्या
मैने चार बातें क्या कह दी
आप तो मुझसे ही पूछने लगे
बोरियत को दूर करने का उपाय
अब आप ही बताइए
अगर मुझे मालूम होता
तो क्या मैं
ये कविता लिखने जैसा
बोर काम लेकर बैठता?

हाँ,लेकिन मेरा
एक फायदा तो हो गया
कविता का नाम सुनकर
मेरा मंगल जाग गया है
और अब बाड़े मे आकर
खूब करतब दिखा रहा है

मेरा तो काम हो गया
दोस्तों
माफ़ करना
आपको
खामख़ाँ
बोर कर दिया...........................

मदद

किसी को
की हुई मदद के
गिनवाते ही
ख़त्म हो जाता है
उस मदद से मिलने वाले
पुण्य का लाभ
ऐसा करते ही
आपका बड़प्पन
(जो आपके मन का
बनाया हुआ
एक छद्म भर है)
ध्वस्त हो जाता है
और आप
उसी व्यक्ति के
समानांतर आ जाते हैं

इसलिए
मदद करने से पहले
हमे भूल जाना होगा
भविष्य मे कभी
उस मदद को
गिनवाने के लोभ को
क्योंकि बदले मे
कुछ चाहने की
इच्छा रखने वाली मदद
मदद नही होती
बल्कि सिर्फ़
मज़बूरियों का
सौदा होती है.................

सीधा आदमी

हर सीधा आदमी
कमज़ोर नही होता
(जैसी की शायद
आम धारणा है)

सीधे को कमज़ोर कहकर
शायद वो लोग
जो न्याय और मानवता
के रास्तों से
बचकर चलते हैं
अपने उस निर्णय को
तर्कसंगत साबित करने की
कोशिश करते हैं
जिसमे उन्होने
अपने मन की कचहरी मे
अपने भीतर के
उस सीधे आदमी को
फाँसी पे लटकाने का
आदेश दिया था
क्योंकि उसको
फाँसी होने से पहले
वही सीधा आदमी
आड़े आता था
छल के द्वारा
हथियाई गयी
सफलता के बीच मे

ऐसा शायद
इसलिए संभव हो पाता है
कि जिस तालिबानी व्यवस्था का
हम वाह्य रूप से
पुरज़ोर विरोध करते हैं
कहीं ना कहीं
उसी व्यवस्था का
एक अंश
पल रहा है
हमारे भीतर भी
तभी तो
उस सीधे आदमी को
फाँसी देते हुए
हमे ज़रा भी
झिझक नही होती

आपके सामने
खड़ा हुआ
तथाकथित
सीधा आदमी
ज़रूरी नही की
कमज़ोर हो
वो साहित्यकार
भी हो सकता है
और अगर आपकी किस्मत
ज़्यादा ही खराब हुई
तो फिर वो
पत्रकार भी हो सकता है

और आजकल
पत्रकार ही तो
कमज़ोर आँखों वाली
न्याय प्रणाली को
उंगली पकड़ाकर
पहुँचाते हैं
आप जैसे
अपने भीतर के
सीधे आदमियों के
क़ातिलों के
गिरेबान तक................

दीमक

बड़ी ढीठ है
तुम्हारे ख़याल की दीमक
दिन रात खाती रहती है
मुझे भीतर ही भीतर
जब तक बाहर रहता हूँ
बात करता हूँ लोगों से
तब तक
कुछ नही पड़ता है मालूम

मगर जैसे ही
अकेला पड़ता हूँ मैं
साफ सुनाई देती है
इस शैतानी दीमक की आवाज़

तुम्हारे ख़याल की ये दीमक
खोखला कर रही है
मेरी देह को

लोग कहते हैं
की धूप दिखाने से
भाग जाती है दीमक
मगर तुम्हारे रूप का सूरज
तो अब उगता ही नही है
हमारी गली मे

अब मेरी समझ मे आया
की विरह मे पागल लोग
क्यों पी लेते हैं
कीड़े मारने की दवा...........

Tuesday, August 11, 2009

गम-ए-दुनिया तो कम नही होता

इश्क़ ये आदतन नही होता
यूँ ही कोई सनम नही होता

इश्क़ होता है या नही होता
उसमे कोई वेहम नही होता

कोई साजिश है जहन मे उसके
वस्ल यूँ दफ्फतन नही होता

ग़रीब से ना छीनकर खाओ
ये निवाला हजम नही होता

आपने आँख फेरी है जबसे
समंदर ये ख़तम नही होता

दिल से तुमने बुरा नही चाहा
तैरता हूँ,दफ़न नही होता

दिल ये मानेगा नही बिन-तेरे
जब तलक सर कलम नही होता

उसकी हर याद मिटा दी मैने
एक चेहरा ख़तम नही होता

अब वो रोता नही तो मोहल्ला
कहता है उसको गम नही होता

बावरे,सिर्फ़ तेरे लिखने से
गम-ए-दुनिया तो कम नही होता

Wednesday, July 29, 2009

घूँघट

तेरी जबां को छूती है जब
उर्दू मीठी हो जाती है
यूँ तो पहले से मीठी है
और भी मीठी हो जाती है

तेरी लटों पर गिरता है जब
सावन राह भटक जाता है
चेहरे पर आता है जब तो
अधरों पर ही अटक जाता है

सूरज तेरी नाक की नथ से
चमक चुराया करता है
चाँद तुम्हारी जुल्फ से अपनी
रात सजाया करता है
तारे तेरी बिंदिया की
चमचम से हैरां होते हैं
तुझको शायद इल्म नही
ये तेरी बातें करते हैं
सूरज ने इक रोज़ कहा था
मुझसे तेरे बारे मे
कि वो सुस्ता लेता है
तेरी परछाई मे छुपके
चाँद भी कहता रहता है कि
उसको तेरे कानों की ये
बालियां अच्छी लगती हैं
हवा तो तेरी दीवानी है
तेरे बदन को छूकर के
खुश्बू मे महका करता है

इसीलिए कहती है अम्मा
वक़्त नही अच्छा है बेटा
नही है अच्छी नीयत सबकी
बहू को पर्दे मे ही रखना
अब तुम समझी अम्मा मेरी
समझती है तुमको भी अपना
डरती है बस दुनिया भर से
चंदा,सूरज,तारों तक से

और मुझे भी डर लगता है
चंदा जब तेरे कानों की
बालियों को घूरा करता है
सूरज जब तेरी नथ के ही
इर्द-गिर्द घूमा करता है

इसीलिए बस इसीलिए तो
कहता हूँ की घूँघट कर ले
अपने सारे रूप की आभा
चूनर और घूँघट से ढक ले
सजनी मेरी मान भी जा ना
अरे मेरी अम्मा की खातिर
घूँघट कर ले...................

ग़ज़ल

जाने कैसा रोग लगा दीवाने को
हंसते हंसते कहता है मर जाने दो

उसने भी एक ख्वाब का कुत्ता पाला था
दौड़ता है अब ख्वाब उसी को खाने को

प्यार कभी इक तरफ़ा तो होता ही नही
मन ज़िद करता है पर उसको पाने को

होश भी खोया,नींद भी खोई और तो और
गलियों गलियों फिरता है अब खाने को

बावरे की क्या बात करें वो पागल है
रहने भी दो,छोड़ो, उसको जाने दो

ग़ज़ल

किसी का साथ कभी दिल को गवारा ना हुआ
खुदा बस दूसरों का रहा,हमारा ना हुआ

हाँ एक बार तेरी नज़र से भीगा था मैं
जो एक बार हुआ क्यों वो दुबारा ना हुआ

क्यों उसकी कोख मे सन्नाटा साँस लेता है
किसलिए उसको बुढ़ापे का सहारा ना हुआ

आस्तीने चढ़ाकर त्योरियाँ दिखाईं भी
मन मगर कभी भी बस मे हमारा ना हुआ

अनाज बाँटकर तो गये थे सरकारी लोग
था इतना बड़ा परिवार ,गुज़ारा ना हुआ

तुम्हारी दीद के शीरे से ये महरूम रहा
इश्क़ मेरा कभी किशमिश से छुआरा ना हुआ

ग़ज़ल- बावरा है ये मन मेरा समझे ना हक़ीक़त को

रात की हंडिया नींद मे रखकर रोज़ पकाता हूँ
अगले दिन ये सारा गम मैं खुद ही ख़ाता हूँ

भूखा आख़िर कैसे बाँटे अपनी खुराकों को
माँगने आते हैं मुझसे जो,उनको भगाता हूँ

प्यार भरी ये झूठी बातें रहने ही दो तुम
तुमको मैं गुस्से मे ही अब सच्चा पाता हूँ

बहका दरिया राह छोड़कर मुझसे चला मिलने
रोज़ मैं उसको उसके समंदर तक पहुँचाता हूँ

मेरे अकेलेपन को तुम खाली ना समझ लेना
इसमे बहुत से नगमे हैं जिनको मैं गाता हूँ

कभी कभी बर्बाद भी होना अच्छा लगता है
तुमसे मिली बर्बादी को इस दिल मे सजाता हूँ

हैरां हूँ बस थोड़ा सा तुम बदले आख़िर क्यूँ
यारों मे लेकिन तुमको अच्छा ही बताता हूँ

बावरा है ये मन मेरा समझे ना हक़ीक़त को
ख्वाब से ये उठता ही नही जितना भी जगाता हूँ

Friday, July 17, 2009

छिपकली की पूंछ जैसा मन

छिपकली की पूंछ जैसा मन
मार दो फिर भी जनमता है
काट दो फिर भी पनपता है
उलझता है मुझसे ये हर छन
छिपकली की पूंछ जैसा मन

रात इसको रस्सियों मे जकड़ के
फेंक आया था नदी के पार मैं
पर ना जाने कैसे खुलके आ गया
इस सुबह फिर से है मेरे पास मन
आ गया है तरस इसको देखकर
खून मे लथपथ बिचारा मन
छिपकली की पूंछ जैसा मन

कर रहा हूँ पट्टियाँ अब घाव पे
दर्द मे है बिचारा मैं क्या करूँ
जानता हूँ पर ये जैसे ठीक होगा
थोप देगा फिर से अपनी ख्वाहिशें
जगाएगा मुझको सारी रात भर
दिखाएगा चाँद तारे दोपहर
मुझी को छलता है ये निष्ठुर
चिपचिपा और लिसलिसा सा मन
छिपकली की पूंछ जैसा मन

ये करे भी तो बिचारा क्या करे
जिसको जैसा बनाया भगवान ने
वो तो वैसा ही रहेगा उम्र-भर
मुझसे लड़ना खून मे है इसी के
ये अज़ब सी बात है कि इसके भीतर
दर-असल बहता है मेरा खून ही
खैर जैसा भी है ये पर साथ अपना
छूटने वाला नही मरने से पहले
देह के रिश्ते तो फिर भी टूटते हैं
पर ये रिश्ता टूट सकता है भला क्या

तो हमारा इस तरह लड़ना-झगड़ना
प्यार है शायद अनूठे किस्म का
ये भी मुझको बोलता रहता है कुछ भी
मैं भी इसको सुनाता हूँ खरी-खोटी
पर कहीं भीतर ही भीतर जानते हैं
कि नही है मुनासिब जीना बिछड़कर
एक अच्छे रिश्ते की पहचान आख़िर
ये समझ लेना ही तो होती होगी

ये मुझे कहता है की मत रूप पर इतना अकड़
तू,ऐ बदन
और मैं कहता हूँ इसको
छिपकली की पूंछ जैसा मन
मार दो फिर भी जनमता है
काट दो फिर भी पनपता है
उलझता है मुझसे ये हर छन
छिपकली की पूंछ जैसा मन

Thursday, July 16, 2009

काश कभी ऐसा हो सकता

काश कभी हम यूँ कर सकते
वक़्त के मुँह पर उंगली रखते
भीड़ की आँखें बंद करते
और चाँद को तोड़ा मद्धम करते
खुला छोड़ देते भीतर के
चोर को अपने
जो जी मे आए,वो करते
काश कभी हम यूँ कर सकते

काश कभी ऐसा होता
हम गुम हो सकते
तुम मेरे संग बैठी होती
और मैं तेरे रुखसारों पर
उलझी ज़ुल्फ़ो को सुलझाता
काश कभी ऐसा भी होता

काश कभी ऐसा होता कि
मीलों की दूरियाँ ये अपनी
हाथों के जितनी हो जातीं
बादल अपने दोस्त हैं सारे
सूरज को वो ढक लेते तब
और मैं तेरे चेहरे की
हर नस को छूता
हर वो बात जो होंठों तक
आते-आते रुक जाती है
तुमसे कह सकता
काश कभी ऐसा हो सकता

काश कभी ऐसा होता कि
चाँद तुम्हारा हाथ पकड़कर
दुल्हन के पैरहन मे तुमको
मेरे दरवाज़े तक लाता
चाँदनी का वो घूँघट तेरा
जब मैं अपने हाथों से
तेरी सूरत से अलग हटाता
फूल बरसते आसमान से
रोशन हो जाता हर लम्हा
काश कभी ऐसा हो सकता

काश कभी ऐसा होता कि
सुबह ये मेरी तेरी नज़रों के
छींटों से खुलती और
शाम तुम्हारे रूपों की
परछाईं लेकर ढलती और
रात तुम्हारे साए की
सरगोशी मे ही कट जाती
सारा दिन तेरे रंगों की
खुश्बू मे महका करता

और भी जाने कैसे कैसे
ख्वाब दिखाया करता है दिल
काश की तुमको भी ऐसे ही
ख्वाब दिखाया करता हो दिल
काश की ये सब कुछ हो सकता
काश कभी ऐसा हो सकता

Saturday, July 11, 2009

गुब्बारा

तुम्हारे संग गुज़रे हुए पल
कितने भारमुक्त होते हैं
उनपर कोई बोझ नही होता
गुरुत्वाकर्षण के विपरीत
हवा मे तैरते हुए से
होते हैं वो पल
ठीक वैसे ही
जैसे उड़ता है
गॅस का गुब्बारा

हर रात मैं
अपने ख्वाब के गुब्बारे मे
नींद की नदी के ऊपर
उड़ता हूँ
घूमता हों दूर तक
ख़यालों के आकाश मे

मगर आँख खुलने से
ठीक पहले
ना जाने कहाँ से
आ जाती हो तुम
परी के वेश मे
छुपाकर लाती हो
अपने पंखों मे
हक़ीक़त की
एक बड़ी सी सुई
और चुबा देती हो
उस गुब्बारे मे
सारी हवा निकल जाती है
काफूर हो जाता है
मेरे कुछ घंटों का ख्वाब
और मैं धम्म से गिरता हूँ

ज़मीन पर
हर रोज़
सैकड़ों फीट की ऊँचाई से
नीचे गिरता हून मैं
मगर फिर भी
बेदम नही होता
देखा जानां
कितनी ताक़त है
हमारे प्यार मे

Friday, July 10, 2009

माँस

हड्डियों के ढाँचे पर
करीने से चढ़ाए हुए
माँस के एक खोल हैं हम
माँस की कीमत है केवल
यही है बिकता यहाँ पर
आग भी तो बस यही
स्वीकार करती है
धार भी तो बस इसी मे
घाव करती है
माँस का है खेल सारा

यही है धंधा,यही व्यापार सारा
माँस के ग्राहक खड़े हैं
लंबी लंबी क़तारों मे
बिक रही है देह कभी
ऊँचे कभी कम भावों मे

ऐसे ही इस माँस ने
अस्थियों के ऊपर

जैसे तैसे चढ़ करके
मुझको भी आकृति दी है
मुझको भी एक शक्ल मिली है
और कुछ शुभचिंतकों ने
मेरी इस शक्ल को
धर्म के अनुसार एक
पहचान दी है
मुझे बस ऐसे ही मेरा
नाम मिला है


और इस तरह
जन्म के कुछ छनो के ही भीतर
मुझे बाँध दिया गया
मेरे धर्म,नाम और शक्ल
की सीमाओं मे
माँस ने खुद ही मेरी

शक्ल अख्तियार कर ली
और फिर उस शक्ल से ही
जुड़े कितने लोग
मेरे नाम और शक्ल की
बुनियाद पर
बने कितने रिश्ते
परिवार,समाज,धर्म,देश
और ना जाने कितनी चीज़ें

सब मुझे पहचान देती हैं
भीड़ के बीच मे स्वयं के
सुरक्षित होने का
आभास देती है
मगर कब तक
जब तक की मेरे माँस की
ये गंध
उनकी नाक तक नही पहुँचती
जब तक की उनकी आँखों मे
उतर नही आता है वो शैतान

जो मेरी देह का भक्षक है
जब तक की हथियारों मे
फिर वो धार नही आती
जो की मेरे माँस मे फिर
घाव करने के लिए
बेचैन है

बस तभी तक
बस तभी तक साथ रहते हैं
ये बंधन
नाम,शक्ल,पहचान के
बस तभी तक दुहाई देते हैं
लोग धर्म की
किंतु जब आतंक के सामने
डर सर उठाता है
मेरी शक्ल पर से
माँस पिघल जाता है
मेरा नाम बस कुछ दिनो के लिए
कुछ लोगों के मुँह पर

रह जाता है
मेरा धर्म मंदिरों के भीतर
मूर्तियों और घंटियों मे
बजता रहता है वैसे ही
पहले की तरह
मेरा देश मेरी मौत को
छापता है
अख़बार के किसी कोने मे
अगर,ज़रूरी समझे तो


और शायद एक अच्छा काम
जो किया जाता है
कि मेरी अस्थियों को
बहा दिया जाता है
शायद इस आशय के साथ
कि वो फिर से किसी
माँस के खोल को
ना पहन लें
माँस की उस गंध से
आकर्षित होकर

Sunday, July 5, 2009

तुम्हारी नज़्म

एक गीली नज़्म है
तुम्हारे खुश्क लबों पर
यूँ लगता है
जैसे लबों से उतारकर पानी
सींचा है तुमने
इस नज़्म को

लिखते वक़्त शायद
काग़ज़ पर
कुछ अश्क़ भी गिर गये थे
जिनमें तुमने
स्याही के रंग मिला दिए
इसीलिए तो
कहीं-कहीं पर
नमकीन हो गयी है नज़्म

तुम्हारे खुश्क लबों पर
दरारें पड़ गयी हैं
और कुछ-कुछ जगहों पे
जमा है खून
शायद ख़त्म हो गयी थी
तुम्हारी सारी नमी
तभी तो
नज़्म के आख़िर मे
लाल हर्फो मे लिखा है
तुम्हारा नाम.

Friday, June 19, 2009

तरस

तुम्हारे तरस के जोंक
जब रेंगते हैं मेरे जिस्म पर
तो घिन सी आ जाती है
मुझे अपने पे

हर रोज़
मैं नोचता हूँ इन्हे
अपने जिस्म से
और फेंक देता हूँ बाहर
मगर हर रोज़
मेरा भला चाहने वाले
कुछ लोग
अनजाने मे ही
गुलदस्ते मे भरकर
उन्हे फिर ले आते हैं
मेरे पास
जोंकों से भर गया है
मेरा सारा कमरा

सच मे
दुनिया कितनी बेरहम है
तरस भी खाती है
तो सारा खून
चूस लेती है.............

Thursday, May 28, 2009

जान

किसी अड़ियल
किरायदारिन की तरह
जिस्म पर
क़ब्ज़ा किए बैठी है
जान
कितने ही नोटीस भिजवाए
मगर ये
घर खाली करने का
नाम ही नही लेती
दिन-रात
ज़हन की दीवार पर
साँस की एक कील
ठोकती रहती है बस

पता है,जिस रोज़
मेरे नाम हुआ था
ये जिस्म
उसी रोज़ पता नही
इसे कैसे पता चल गया
और इसने अपना सारा सामान
पहले से ही भर लिया
मेरे घर मे

सिर्फ़ इतना ही नही
ज़िंदगी का पूरा
कारखाना ही खोल दिया
(दिल,दिमाग़,फेफड़े वग़ैरह
जाने कैसे कैसे
भयानक उपयंत्रा लगा दिए)
मैने भी सोचा
कि शायद
कुछ दिन के बाद
ये खुद ही बदल लेगी
अपना ठिकाना
मगर उस रोज़ से आज तक
यहीं बनी हुई है
मेरे भीतर
अब इतने पुराने किरायेदार को तो
आप यूँ ही
बाहर नही निकाल सकते
इस मामले मे तो
क़ानून भी इतना सख़्त है
(हथकड़ियाँ तक लग सकतीं हैं आपको)

अच्छा,
कारखाना भी ऐसा है
जो कभी बंद नही होता
भले ही शहर भर मे
करफ्यू लगा हो
मेरी इस किरायदारिन को
कोई फ़र्क नही पड़ता
इसकी मशीन
कभी बंद नही होतीं
कई बार नींद से उठकर
इसके कमरे की दीवार पर
टेक लगाकर सुनता हूँ
ये किरायेदारिन
तब भी जागती रहती है

पता नही
कितनी क्षमता है इसमे
जो इतने सालों से लगातार
जिस्म के इंजिन मे
साँस का ईधन झोंक रही है
कभी कभी
इसकी ये लगन देखकर
बड़ी इज़्ज़त पैदा होती है
इसके लिए
मगर उसके ठीक अगले पल ही
फिर जाग जाता है
मेरे भीतर का मकान-मालिक

तो बस ऐसे ही
लड़ते झगड़ते रहते हैं
हम लोग
ये अपनी
चौखट पर आ जाती है
और मैं
अपने बरामदे मे
खूब खरी खोटी सुनाते हैं
एक दूसरे को
ताने मारते हैं
पर कहीं ना कहीं
हमारे इन तानों मे भी
एक दूसरे के लिए
हमदर्दी छुपी रहती है
हो भी क्यूँ ना
ना तो इसका ही कोई
जानने वाला है
और ना ही मेरा
हमसे मिलने भी कोई नही आता

और ठीक ही तो है
एक संकरे से घर मे
रहने वाले
दो लोगों के बीच
ऐसा ही रिश्ता तो
होता है.........

परछाई

जानते हो
इस तरह से
क्यों जागता रहता है
ये वक़्त
क्योंकि नींद
इसकी परछाई है
जिसे पकड़ने के लिए
ये दिन रात गोल गोल
घूमता रहता है

ठीक वैसे ही
जैसे कभी कभी
कोई कुत्ता
घूमता है गोल-गोल
अपनी पूंछ
पकड़ने के लिए...........

Tuesday, May 26, 2009

इस बावरे को बेवजह,शोहरत तो मिल गयी

इस बावरे को बेवजह,शोहरत तो मिल गयी

चाहत नही मिली तो क्या,नफ़रत तो मिल गयी
खुद को ज़रा समझने की,फ़ुर्सत तो मिल गयी

हाँ वफ़ा के चंद सिक्के बर्बाद हो गये
बेशुमार बेवफ़ाई की,दौलत तो मिल गयी

सब छीनने का वादा पूरा ना कर सके
इज़्ज़त नही मिली तो क्या,ज़िल्लत तो मिल गयी

हैरत का हमे कोई तजुर्बा ही नही था
तुमको बदलते देखकर, हैरत तो मिल गयी

नादान था,तुझमे खुदा को देखता था मैं
ग़म मे तेरे खुदा की,इबादत तो मिल गयी

मुझको किसी ने आज तक देखा नही था यूँ
मुझको तेरी नज़र मे,बग़ावत तो मिल गयी

सब छीन लिया मुझसे जो कुछ भी दिया था
इक याद बस रखने की,इजाज़त तो मिल गयी

ग़म ने तेरे सिखाया था लिखने का ये हुनर
इस बावरे को बेवजह,शोहरत तो मिल गयी

Saturday, May 23, 2009

तुम आए तो क्या क्या आया


तुम आए तो क्या क्या आया
मौसम कई सुहाने आए

पहले नींदों के ख्वाबों मे
कोई दैत्य बसा करता था
जो हर रात मेरी तन्हाई
पर पुरज़ोर हंसा करता था

तुम आए तो भागा ये और
ख्वाब नये सिरहाने आए
तुम आए तो क्या क्या आया
मौसम कई सुहाने आए


जीवन की ये लौ जल जल कर
जलने से जब ऊब चुकी थी
रोशनी से कतराती आँखें
अंधेरे मे डूब चुकी थी

तुम आए तो साथ तुम्हारे
रोशनी के परवाने आए
तुम आए तो क्या क्या आया
मौसम कई सुहाने आए


तुमसे पहले मन की चिड़िया
चीख चीख कर लेट गयी थी
नींद के आँचल मे इस बार भी
फिर से भूखे पेट गयी थी

तुम आए तो अपने संग मे
खुशियों के भी दाने लाए
तुम आए तो क्या क्या आया
मौसम कई सुहाने आए


अब इस कमरे की खिड़की को
खुली खुली मैं रखता हूँ
रोज़ हवा खाने के बहाने
तेरी ओर निकलता हूँ

तुम आए तो जाने ऐसे
कितने और बहाने आए
तुम आए तो क्या क्या आया
मौसम कई सुहाने आए


रात भी आई,चाँद भी आया
सूरज,धूप ,बहार भी आए
इंद्रधनुष के सातों रंग भी
आसमान के द्वार पे आए

तुम आए तो वापस मेरे
कितने दोस्त पुराने आए
तुम आए तो क्या क्या आया
मौसम कई सुहाने आए

Friday, May 22, 2009

नज़्म तुम क्यों आ जाती हो

नज़्म
तुम क्यों आ जाती हो
मेरे पास
लिख जाने के लिए

आख़िर मैं
तुम्हे क्या दे पता हूँ
सिर्फ कुछ
अँधेरी गलियों की दास्तान
कड़वी दवाइयों की तरह
कुछ वीभत्स,नग्न सच्चाइयाँ
और धूप के अभाव मे
कुछ मटमैले से रंगों के सिवा
सच सच कहो
क्या तुम्हे वाकई
यही सब चाहिए होता है?

मैं तो मेरे जिस्म मे क़ैद हूँ
इसकी ज़िम्मेदारी है मुझ पर
एक तय वक़्त के बाद
मुझे वापस सौंपना है
इसे मिट्टी को
और उसके बाद
फिर चले जाना है
किसी दूसरे जिस्म मे
मेरी तो
सिर्फ़ इतनी ही गति है

मगर तुम तो उन्मुक्त हो
तुमपर तो
कोई बंदिश नही
फिर तुम
क्यों नही जाकर खेलती
किसी खुशमिजाज़ शायर के पन्नो पर
(और वैसे भी अभी तो
तुम्हारे खेलने कूदने के दिन हैं)

सच सच कहो
क्या तुम्हे वाकाई मुझसे
यही सब चाहिए होता है?



























मगर तुम तो उन्मुक्त होतुमपर तोकोई बंदिश नहीफिर तुमक्यों नही जाकर खेलतीकिसी खुशमिजाज़ शायर के पन्नो पर(और वैसे भी अभी तोतुम्हारे खेलने कूदने के दिन हैं)
सच सच कहोक्या तुम्हे वाकाई मुझसेयही सब चाहिए होता है?

Friday, May 15, 2009

ग़ज़ल

शौकिया हमने साँप पाले हैं

ज़हर बुझे ये दाँत वाले हैं

फिर से कोई बुरी खबर आई

हाथ मे रह गये निवाले हैं

जवाब मे हमारी उलफत के

उन्होने असलहे निकले हैं

ज़ुर्म मेरा तो एक ही था मगर

तुमने बदले कई निकले हैं

ऊम्र भर घूस जिन्होने खाई

आज उनकी जबां मे छाले हैं

फिर नया ख्वाब बुना है उसने

आज फिर उसकी जाँ के लाले हैं

नूर रहता था कभी आँखों मे

आज क्यूँ वहाँ सिर्फ़ जाले हैं

भूख पर भी कोई लगाम कसे

राशनों पर तो पड़े ताले हैं

बावरे,खुद को समझता क्या है

तेरे खातों मे भी घोटाले हैं

Tuesday, April 28, 2009

दमा

मेरी इस बेचैनी का
हर बार यही परिणाम होता है
या तो किसी ना किसी रूप मे
सामने आ जाते हो तुम
या फिर ज़हन की खिड़की पर
एक लिफाफे मे लपेटकर
चुपचाप एक कविता रख जाते हो

निश्चित तौर पर
दूसरा तरीका(कविता वाला)
पहले के स्थान पर
एक अंशकालिक उपाय भर होता है
उसकी जगह ले सकने वाला
पूरा विकल्प नही
और फिर भी
पिछली कई दफा से
तुमने इस दूसरे तरीके को ही
अपनाया हुआ है

इतना ही नही
अब हर बार,धीरे-धीरे
बढ़ती ही जा रही है
तुम्हारे इस इलाज के
मुझ तक पहुँचने मे
होने वाली देरी भी
अब पिछली बार का ही वाक़या लेलो
उस बार बेचैनी मे
लगभग
साँस ही उखाड़ गयी थी मेरी
तब जाके पहुँची
तुम्हारी भेजी हुई कविता
(सज-धज के,रंगीन लिबास मे)

और साथ ही साथ
कम भी होती जा रही है
इस इलाज़ के बाद
मिलने वेल चैन की अवधि भी

सोचता हूँ की अब तुमसे
निकाह ही कर लूँ
तब जाके शायद
मुझे निज़ात मिल सके
मेरे इस इश्क़िया दमे के
मर्ज़ से..............

Friday, April 24, 2009

ग़ज़ल

सूरज की आँखों मे कैसी लाली है
जगराते मे पिछली रात निकाली है

ऊंघ रहा है अब बादल के पल्लू मे
बादल ने भी उसपे चुन्नी डाली है

रात को चंदा,दिन मे सूरज पकता है
बदला करती आसमान की थाली है

चाँदनी को फिर रात ने है न्योता भेजा
पीले रंग की सारी आज निकाली है

बावरे ने दिन-रात तुम्हारे ख्वाबों मे
जागके अपनी खुशी की उम्र बढ़ा ली है

Monday, April 20, 2009

निर्णय

कभी कभी कुछ निर्णय
सिर्फ़ एक क्षण मे हो जाते हैं
उस क्षण मे
उस चीज़ को पाने की लालसा
बढ़ जाती है इतनी अधिक
कि फिर कुछ नही दिखता है
उसके आगे-पीछे
ना तो दिखती हैं
उस चीज़ को पाने की राह मे
आने वाली दिक्कतें
ना ही दिखते हैं
इस निर्णय से असंतुष्ट
परिवार वालों के
बिगड़ते हुए चेहरे
और ना ही दिखती हैं
लोगों की उठती हुई उंगलियाँ
इनमे से कुछ नही दिखता
बल्कि एक अजीब सी ही
चीज़ होती है
पाए बिना ही
उस चीज़ को पा लेने की
खुशी के एहसास का
एक छोटा सा हिस्सा
पता नही कौन रख जाता है
मन की जीभ पर
(कुछ कुछ वैसा ही
जैसे हलवाई,
बेचने से पहले
चखने को देता है
थोड़ी सी मिठाई)
एहसास के
इस बहुत छोटे से हिस्से को
नज़रअंदाज़ कर पाना
बहुतों के बस मे नही होता
ख़ासकर आम आदमी के बस मे तो
बिल्कुल नही
(हाँ,किसी मनोयोगी के बस मे
हो सकता है शायद)

मैं भी तो बेहद आम हूँ
एक रोज़
ऐसे ही किसी क्षण मे
तुम्हे पाने के
उस अद्भुत एहसास की आँच मे
तुम्हे पा लेने का
निर्णय कर बैठा हूँ
माफ़ करना
मगर अब इस निर्णय से
परे हट पाना
मेरे बस की बात नही है..............

सांड़

ज़िंदगी के बगीचे मे
घुस आया है
कॅन्सर का सांड़

हैरत इस बात की
कि इतना बड़ा जीव
कब और कैसे आया भीतर
ये किसी को नही मालूम
बगीचे के मलिक को भी नही
वो तो एक रोज़ यूँ ही किसी ने
जब टॉर्च मारकर देखा
तो रात मे सिर्फ़ दो आँखें
टिमटिमाई थीं
आहिस्ता आहिस्ता
यकीन मे बदल गया ये शक़
कि अब उस जिस्म मे
एक बौखलाए सांड़ का बसेरा है

धीरे धीरे उसने
मिटाने शुरू कर दिए
ज़िंदगी के निशान
चेहरे की चमक
आँखों की रोशनी
और होठों की नमी
एक एक करके
बगीचे की हर चीज़
तहस नहस कर दी

ऐसा नही है
कि कोशिश नही की गयी
उसको भगाने या मार गिराने की
बहुत से प्रयत्न हुए
बहुत सी युक्तियाँ भी की गयीं
मगर उसने हमारे हर वार को
बेअसर कर दिया
इन वारों से बौखला कर
उसने और भी तेज़ कर दी
बर्बादी की रफ़्तार

आख़िरकार आज सुबह
जिस्म के सूखे पेड़ से
लटकता हुआ
साँस का आख़िरी गुच्छा भी
उसने नोच लिया
एक बार फिर
जीत गया वो
और हार गयी
हमारी सेवा

सुना है स्पेन मे
कुछ वाहियात लोग
सिर्फ़ अपने शौक के लिए
करते हैं
घायल सांड़ का शिकार
उस बज़ुबान और बेकसूर पर
दिखाते हैं अपनी बहादुरी

अगर वो इस सांड़ की
गर्दन मे चुबा दें नश्तर
तब मानू मैं
उनकी बहादुरी...................

Monday, April 13, 2009

शहर कानपुर

अपने माज़ी मे है गुम,बेज़ार सा है
क्यूँ शहर मेरा बड़ा लाचार सा है

था कभी पूरब का मॅनचेस्टर मगर
शहर मेरा इन दिनो बीमार सा है

कचहरी मे चल रहा जो मुक़दमा
बंद मिल,छूटे हुए रोज़गार का है

खाँसता है मुँह पे रख करके रुमाल
शहर मेरा धूल के गुबार सा है

ज़ुर्म का है बढ़ रहा ओहदा यहाँ
नतीजा ये वर्दियों की हार का है

काम के बदले मिला ठेंगा यहाँ
अंगूठा ये निखट्टू सरकार का है

क्यों सजी है रोशनी इस राह मे
आम ये रस्ता नही,सरकार का है

मर रही है भूख से जनता मगर
सियासती महकमों मे त्योहार सा है

बिजलियाँ हैं गुल जहाँ देखो वहीं
शहर मेरा अमावस की रात सा है

बनाई थी जिसने वो टूटी सड़क
महल ये बस उसी ठेकेदार का है

जैसा भी है पर मुझे ये है अज़ीज़
यूँ समझ लो मेरे पहले प्यार सा है

किस-किस के माथे धरोगे आरोप तुम
बावरा तू खुद भी गुनहगार सा है

गुस्सा

मुश्किल बहुत था
गुस्से को
हलक के नीचे उतार देना
या फिर उसे घूँट पाना
गुस्सा
बार बार कर रहा था ज़िद
जीना चढ़कर
दिमाग़ मे सवार होने की,
और गालियों के लिबास मे
मुँह से बाहर
फुट पड़ने की
मगर फिर भी
उसे पी जाना पड़ा
उस गुस्से को

गुस्सा जो पैदा हुआ था
मालिक की भद्दी गालियों से
गालियाँ,जो पैदा हुईं थीं
उसके हाथ मे खाने की थाली लेकर
फिसल पड़ने से
और फिसलन पैदा हुई थी
उसके एक हमउम्र,बदमिज़ाज़
ग्राहक की थाली से
गिरी हुई जूठनसे

हम और आप
शायद अंदाज़ा भी नही लगा सकते
कि उसने कितनी ताक़त झोंक दी थी
अपने उस गुस्से पे
काबू पाने मे
आख़िर क्या वजह होगी
जो उस गुस्से पे काबू पाना
उसके लिए इतना ज़रूरी हो गया था
जबकि वो भी खूब जानता था
कि मालिक के गुस्से की वजह
सर्वथा नाजायज़ थी

वजह बहुत सीधी थी
कि वो गुस्से से
नही भर सकता था
उनके पेट
जो घर मे भूखे पेट
उसके लौटने की
आस लगाए बैठे थे

क्योंकि
गुस्से और अपमान से
बड़ी होती है भूख
क्योंकि गुस्सा हो सकता है झूठ
मगर भूख
हमेशा सच होती है...........

Thursday, April 9, 2009

मेरा दोस्त

कभी कभी मेरा दोस्त
कैसा चुप सा हो जाता है
और कभी
ऐसी ज़िद,ऐसी उछल-कूद
की दिल काँप जाता है

इसकी और हवा की जोड़ी
बहुत पुरानी है
जब ये होता है गुम्सुम
तो हवा भी
उदास-उदास रहती है
और जब ये चंचल होता है
तो हवा भी
झूमने लगती है
इनका ब्याह नही हुआ अब तक
फिर भी
दोनो खूब समझते हैं
एक दूसरे के
मन की बात

इनका एक और भी दोस्त है
चाँद
अक्सर ये तीनो
रात को
महफ़िल जमाते हैं
उस रोज़ मेरा दोस्त
खूब शोर करता है
और सुबह होने तक
लड़खड़ाता
और डगमगाता हुआ
चलता है

मेरा दोस्त
मेरी दी हुई सारी चीज़ें
बहुत समहाल के रखता है
अपने भीतर
घर से इतनी दूर
यहाँ पर
एक यही तो है मेरा
इसी के साथ बात करके
मैं दूर करता हूँ
अपना अकेलापन
इसी-से सीखी है मैने
चंचलता और गहराई
समंदर,मेरा दोस्त
मुझे बहुत अज़ीज़ है........

घड़ा

मन के घड़े मे
भरा हुआ था
पानी के रंग का प्रेम
मैं लेकिन
अनजान था इस तथ्य से
कि इसकी तलहटी मे है
एक छोटा सा छेद

जब तक
ज़मीन पर रखा था ये
तब तक सब ठीक था
इसकी मिट्टी भीगी रहती थी
हमेशा प्रेम से

लेकिन ऊँचा उठने की चाह मे
पता ही नही चला
कि कब रिस गया
वो सारा प्रेम

अब,जबकि मैं
आसमान पे हूँ लगभग
तब पाया है
कि इसमे भर गया है
एक काला अहम
ये बहुत गाढ़ा है
इसीलिए रिस्ता भी नही
चिपक रहा है
घड़े की भीतरी दीवारों पर
कैसा अज़ीब सा लगता है
घिन सी आती है

मेरे कुम्हार
अब तोड़ दो ये घड़ा
और इसकी मिट्टी को
फिर चढ़ाओ चाक पर
मगर इस बार
इसमे अहम के घुसने की
कोई जगह मत छोड़ना
और ना ही रखना
प्रेम के रिसने का
कोई भी छेद..........

मौसमी तहज़ीब


बारिश अभी बहुत दूर है
फिर क्यों इन आँखों ने
टपकना शुरू कर दिया है
अभी से.......
तुम तो
बड़ा ख़याल रखते हो ना
मौसमों का
बेमौसम
कभी नही आते
ज़रा
अपनी इस याद को भी
सिखा दो
यही मौसमी तहज़ीब......

धुआँ

धुएँ मे जल रही हैं साँसें
और साँसों मे
पल रहा है धुआँ
एक साँस से दूसरी साँस तक
मैं पहुँचता हूँ
इसी धुएँ के
पुल से होकर

धुआँ नही
तो साँस नही
और साँस नही
तो मेरा वज़ूद भी धुआँ
अब तो
साँसें बोता भी यही है
और उखाड़ता भी है
यही धुआँ

पहले जब तुम थी
तो कैसे डर-डर के
चोरी छिपे आता था ये
लेकिन तुम्हारे जाने के बाद से
दिन रात
यहीं पड़ा रहता है

एक बार फिर
तुम आकर
इसको डाँट दो
सिर्फ़ तुम्हारे पास ही है
इसका औज़ार
मेरी बाजुओं से
इसकी गिरफ़्त के
फंदे काट दो........

कुआँ

बरसों से सूखा पड़ा है
ये कुआँ
दिल के एक कोने मे
शायद किसी बहुत ख़ास के
अनदेखे और अनजाने
स्नेह के अभाव मे
मैं खुली आँख से चलता हूँ
तब भी
जब-तब गिर जाता हूँ
इसी कुएँ मे
अंदर से
और भी अधिक लगता है डरावना
ये कुआँ
जब मेरी ही आवाज़ें
लौट-लौट कर आती हैं
मेरे पास
तब अकेले रहने का अहसास
और भी हो जाता है गहरा


कोई भी तो नही उतरा
आज तक
इसके भीतर
बस एक तुम्हारे सिवा
मुझे आज भी याद है साफ-साफ
जब इसकी मुंडेर से
एडियाँ उचका-कर
तुमने नीचे की ओर देखा था
कैसे तुम्हारे बाल
मेरे और सूरज के बीच आ गये थे
बालों मे छुपा हुआ तुम्हारा चेहरा
बालों से ही छन करआती धूप मे
कभी उजला कभी गहरा
लगता था
जैसे रात और दिन
एक हो गये थे
जैसे शाम की गोद मे
धूप के साए सो गये थे
तुम्हारा ध्यान तो
नीचे की तरफ था
मगर मैने देखा था
कि कैसे सूरज बार-बार
तुम्हारी आड़ से बाहर निकल-कर
मुझे अज़ीब से इशारे कर रहा था
कभी मौका मिले
तो इससे पूछना
की मैं कितना खुश हुआ था
उन दिनो
कैसे-कैसे सपने बोने लगा था

वैसे ये अब
ज़्यादातर चुप ही रहता है
तुम्हारे जाने वेल रोज़ से ही
ऐसा रहने लगा है ये
गुम्सुम,उदास
बात भी नही करता मुझसे
ऐसा लगता है कि मुझसे ज़्यादा दुख तो
इसे हुआ है
हमारे एक ना हो पाने का

अब ये सूरज इधर नही आता
इसीलिए इस कुएँ मे
अब काई जमने लगी है
और सीलन भी बढ़ रही है
बहुत अज़ीब सा लगता है अब यहाँ
लेकिन फिर भी मैं
जब-तब गिर जाता हूँ
इसी कुएँ मे
और वहीं पड़ा रहता हूँ
बड़ी देर तक

अब सोच रहा हूँ
कि एक रोज़
किसी को बुलवाकर
मिट्टी से पटवा दूं
यादों के इस कुएँ को.........

दुधमुँही नज़्म

नज़्म अभी दुधमुँही थी
ख़याल के रूप मे
अभी-अभी पैदा हुई
उसके पलने और बढ़ने के लिए
ज़रूरी था कि उसे मिले
शब्दों का दूध
और वही तो ढूँढ रहा था मैं
घर के हर कोने मे
हर बर्तन मे
लेकिन कभी-कभी
पता नही क्या हो जाता है मुझे
कि मैं उसे कहीं रखकर
भूल जाता हूँ
और फिर उस शब्दों के भगोने को
ढूँढ नही पाता
ढूँढ भी लेता था शायद
अगर उसी वक़्त
किसी ने बाहर की दुनिया से
मेरा नाम नही लिया होता तो
और मैं चला गया बाहर
दुधमुँही नज़्म को
बिस्तर पर ऐसे ही छोड़कर
ये सोचकर
कि बस
अभी आ जाऊँगा लौटकर

ठीक-ठीक याद नही
कि कितनी देर बाद लौटा मैं
मगर जब लौटा
तो वो उसे ले जा रहे थे
सफेद चादर मे ढक-कर
आख़िरी बार
बस कुछ देर के लिए दिखाया गया
मुझे उसका चेहरा
पता नही
कितनी देर तक तड़पती रही होगी
वो भूख से
आँखें बाहर को आ गयीं थीं
और होंठ
अज़ीब से रंग के हो गये थे
उसके

कहीं भी नही लिखी गयी
इस घटना की रपट
ना जाने
ऐसी कितनी नज़मों के कतलों का
इल्ज़ाम है मेरे सिर पर
और फिर भी
देखो ना किस तरह
खुले-आम घूम रहा हूँ मैं

इसी तरह से
ना जाने कितने दुधमुहों की
रोज़ होती है मौत
हमारे देश मे

Monday, April 6, 2009

मेरी किस्मत संवार जाए

मुझे बिंदी बनाकर तुम,लगा लो अपने माथे पे
मेरा भी मान बढ़ जाए,तेरा भी रूप खिल जाए

बनाकर फूल मुझको तुम,लगा लो जुल्फ मे अपनी
मुझे आशियाँ मिल जाए,तुम्हारी जुल्फ इतराए

मुझे पिघला के कंगन मे,पहन लो हाथ मे अपने
मुझे भी चैन मिल जाए,तेरी छन-छन संवर जाए

बड़ी है आरज़ू तेरे,गले का हार बनने की
अगर देखे तुझे जो वो,फलक का चाँद जल जाए

अगर कुछ भी नही तो फिर,बनालो आँख का काजल
मुझे हर वक़्त तू अपनी,नज़र के पास ही पाए

अगर ये भी नही तो फिर,करो इतना तो कम से कम
बनाकर धूल ही रख लो,मेरी किस्मत संवर जाए

ग़ज़ल

आज-कल वो हर जगह,हरदम ही रहती है
पर नही मिलती है तो ,उलझन सी रहती है

उसके ना मिलने से है ये दिन बड़ा गुमसूम
सहर अब बदरंग शब बेदम सी रहती है

चाहता हूँ मैं की पिघलें पर ये पीड़ाएँ
इन दिनो सीने मे बिल्कुल जम सी रहती है

वक़्त ने चाहा तो शायद मिल भी जाएँ पर
गुंजाइशें अपने भले की कम ही रहती है

माँग लेता तुझको मैं किस्मत से भी लेकिन
किस्मतों से पर मेरी अनबन सी रहती है

चाँद को अब चाँदनी से इश्क़ है ज़्यादा
रात उसके घर मे अब सौतन सी रहती है

बावरा हर घड़ी भरता जोश अपने आप मे
क्यूँ मगर उम्मीद फिर भी कम सी रहती है

विवाद

हर विवाद को
एक आशा होती है
उसके सुलझ जाने की
पर वो,ये भूल जाता है
की उसका नाम ही है विवाद
उसका तो जन्म ही
सिर्फ़ इसलिए हुआ है
की उसे ज़िंदा रक्खा जा सके
क्योंकि उसके सुलझ जाने से
बरसों से चले आ रहे
राजनैतिक लाभ का
पल भर मे हो सकता है अंत

विवाद को
सिर्फ़ ज़िंदा रखा जाता है
उसकी भूख नही मिटाई जाती
और जब किसी विवाद के सहारे
हथिया ली जाती है सत्ता
तो उसे यूँ ही छोड़ दिया जाता है
भूखा,बेहोशी की हालत मे

और फिर जब
राजकीय भोग की अवधि
समाप्त होने लगती है
तो छिड़के जाते हैं
उसके चेहरे पर पानी के छींटे
(अगर उसमे जीवन का कोई अंश
अब भी बाकी हो तो)
और उसे पहनाया जाता है
नया लिबास
वो फिर हो लेता है उनके साथ
इस उम्मीद मे
कि शायद इस बार
उसकी अनदेखी ना हो
मगर उसकी ये उम्मीद
हर बार
बेकार साबित होती है

हर विवाद की
इंसान की ही तरह
होती है एक उम्र
जिसके बाद
वो खुद ही
छोड़ देता है साहस
और तोड़ देता है दम

ऐसे ही ना जाने
कितने भूखों-मरे
विवादों की लाशें
अब भी प्रतीक्षा मे हैं
अपने अंतिम संस्कार की..........

तुम्हारे इनकार के बाद.

उस दिन जब तुमने
साफ साफ शब्दों मे कहकर
उम्मीद के रोशनदान की
आख़िरी झिर्री भी बंद कर दी थी
उस दिन हमारे रिश्ते के
हाथ की नब्ज़ से
देर तक बहा था ख़ून
और फैल गया था
मन की दीवार पर हर कहीं
और मैं कितने ही दिनो तक पड़ा रहा था
उसी खून मे लत-पथ
फिर जब होश आया
तो इस डर से
की कहीं कोई मेरी आँखों मे ना देख ले
इस खून के छींटे
मैने खूब धोए थे
मन की दीवार और फर्श
लेकिन दीवार के एक हिस्से पर
खून के छींटे इतने सख़्त थे
की लाख धोने पर भी नही गये
और हारकर मैने
वहाँ एक तस्वीर टाँग दी थी

आज मुझे
उस तस्वीर के फ्रेम के नीचे
फिर दिखा खून
जैसे ही मैने
तस्वीर थोड़ी सी खिसकाई
तो एकदम से उमड़ पड़ा
बरसों से रिस रहा खून
और मेरे हाथ
एक बार फिर हो गये हैं लाल

ज़िंदगी का ये ज़ख़्म
शायद कभी नही भरेगा
मगर तुम फ़िक्र मत करना
मेरा वादा अब भी कायम है
की इस खून का कोई भी छींटा
कभी उड़-कर नही पहुंचेगा
तुम्हारी हरी-भरी ज़िंदगी के
आस-पास भी..............

ज़रूरत

स्याही की बोतल मे
भरा हुआ है
तुम्हारा रूप

रोज़ भरता हूँ
अपनी कलम
और काग़ज़ पे
लिख देता हूँ
तुम्हारा नाम
खुश हो जाता है
काग़ज़
पर मेरी बेचैनी
कम नही होती

एक दिन
जाने क्या सोचकर
मैने भी पी ली
यही स्याही
मगर
होंठ नीले पड़ गये
और आँखों मे
छा गया अंधेरा

बेचैनी
फिर भी नही गयी
और जाती भी कैसे
इंसान और काग़ज़ की ज़रूरतें
अलग अलग होती हैं ना................

बावरे को कुछ याद नही

उड़ते उड़ते टुकड़े हैं कुछ,हिस्सा कोई खास नही
मुझको अब भी गम होता है,क्यूँ तू मेरे पास नही

पहले तो किस्से तेरे दिन रात सुनाया करता था
एक सदमे मे खो बैठा है,अब इसकी आवाज़ नही

यूँ तो ज़ख़्मों के ऊपर,फिर चढ़ आया है माँस नया
अब भी सीने मे अटकी है,तेरे ग़म की फाँस कहीं

जाते-जाते इतना तो,दे दे मेरी तन्हाई को
तेरा चेहरा देख के गुजरूँ,दूजी कोई आस नही

हर लम्हा तेरी यादों मे धुआँ धुआँ सा रहता हूँ
प्रेम टपकता हो जिनसे,ऐसे भीगे लम्हात नही

जब से तेरा संग छूटा है,मुझको ये दिखती ही नही
तेरे संग ही रख भूला हूँ,मैं अपनी परवाज़ कहीं

कौन से जुर्म की माफी माँगी है तुमने ये तो कह दो
ये तो सब कुछ भूल चुका है,बावरे को कुछ याद नही

सर्वेक्षण

मेरे शहर की सड़कों पर
घर से दफ़्तर जाते वक़्त
या फिर लौटते हुए
लोगों को हर दूसरे दिन
दिखाई पड़ती है
किसी ट्रक के द्वारा रौंदे हुए
एक कुत्ते की लाश
वहीं दूसरी तरफ
लगभग कोई चार दिन के बाद ही
दिखती है
भीड़ से घिरी
किसी आदमी की लाश

सरकार की तरफ से
निजी चैनेलों के द्वारा कराए गये
इस सर्वेक्षण के नतीजे साफ हैं
कि अभी भी हमारे शहर मे
इंसानी ज़िंदगी
पुर दो गुना से भी
ज़्यादा बेहतर है
एक कुत्ते की ज़िंदगी से............

व्यसन

मेरे व्यसन के काले साँपों ने
मुझे क़ैद कर रक्खा है
अपनी जकड़ मे
ना जाने कितने ही
असंख्य साँपों ने
कस रक्खे हैं फंदे
मेरी कलाईयों पर
मेरे पैरों पर
और मेरे गले के चारों ओर

जब कभी
तीव्रतर होने लगती है
कोई इच्छा
तो और भी ज़्यादा कस जाते हैं
ये फंदे
कभी-कभी तो इतने ज़्यादा
की खून का प्रवाह रुक जाता है
और सफेद पड़ता मेरा जिस्म
पसीने से
तर-बतर हो जाता है
तब जाके कहीं
थोड़ी सी ढीली पड़ती है
पैर की फाँस
मैं लगभग
बहकते कदमों से पहुँचता हूँ
अपनी इच्छा-पूर्ति के स्थान पर
और तब
जैसे-जैसे पूरी होती है इच्छा
वैसे -वैसे ढीले पड़ जाते हैं
सारे फंदे
और कुछ ही देर मे
मैं पूरी तरह से
मुक्त हो जाता हूँ
इनकी पकड़ से

मगर इसके ठीक बाद ही
मैं जैसे ही मुड़ता हूँ
मुँह खोले एक बहुत बड़ा डरावना साँप
जहर भरे अपने दो दाँत
गड़ा देता है मेरे जिस्म पर
पता नही कब तक
मैं उस आत्म-ग्लानि का दंश
झेलता रहता हूँ
लेकिन तब उन काले साँपों मे से
कोई नही आता
मेरी मदद के लिए...................

नसबंदी

हर कवि
कविता रचने के दौरान
गुज़रता है
कविता के पैदा होने की
प्रसव पीड़ा से

कविता पूरी होने के बाद
जब वो पहली बार देखता है
काग़ज़ पर अंगड़ाई लेती हुई
पूरी कविता को
तो उसकी आँखों मे तैरती खुशी का चेहरा
हू-ब-हू मिलता है
एक ही पल पहले बनी
माँ की आँखों की खुशी से

गनीमत है की अब तक
सरकार ने इसपर
नही जारी किया है
कोई फरमान नसबंदी का..............

Saturday, April 4, 2009

लाल बिंदी

याद है दिन वो
लाल रंग की साड़ी पहने
जब तुमने मेरी चौखट पर
पाँव धरे थे
मैने तुमको वहीं रोक-कर
कहा था तुमसे
कमी है कुछ तो
रूप अभी पूरा ये नही है
फिर मैने सूरज के रंग की
बिंदी रख दी थी तेरे
माथे के बीचों-बीच मे बिल्कुल
तेरे रूप की एक लालिमा
छिटक गयी थी मेरे मुख पर

तुम तो लौट गयी थी
बस कुछ देर ठहर-कर
लेकिन अब भी बिंदी वो
आईने पर चिपकी है मेरे
वक़्त हाथ पर ठोडी रख-कर
तकता रहता है बस इसको
सूरज चंदा सबको छुट्टी देके इसने
बंद कर लिया है खुद को
मेरे कमरे मे
एक बार तुम आकर इसको
फिर से पहन लो
शायद फिर से
मेरी उम्र का पहिया चल दे...............

तुम्हारा असर

तेरी हथेली की ये छुवन थी
या जैसे ठंडी हवा का झोंका गुज़र रहा था
ज़मीं मे गहरी धँसी जड़ों मे
कहीं से पानी उतार रहा था

तुम्हारी बातों का ये असर था
या जैसे पूनम के चाँद ने फिर
कहा था दरिया के कान मे कुछ
जो बांवला हो उमड़ रहा था
तुम्हारे आने की आहटों पे
ज़मीं पे बिखरा तमाम मौसम
लिबास अपना बदल रहा था


तुम्हारी पलकों का ही था खुलना
या जैसे अन्धेरे इक शहर मे
उजाला फिर से बिखर रहा था
बहुत पुराना सा ख्वाब कोई
हक़ीकतों मे बदल रहा था

वो तेरे आँचल का था सरकना
या लाज के चेहरे का था घूँघट
जो धीरे-धीरे पिघल रहा था.

ये मेरे मन की बेचैनी ही थी
या स्याह जंगल मे था हिरण इक
तलाश मे बिछड़े यार की जो
हर एक पत्ता उलट रहा था...............

ठंड

घर से दूर
यहाँ ठंड मे
जब चलती हैं
बर्फ़ीली हवाएँ
तो मेरे सारे दोस्त
ढक लेते हैं खुद को
अपनो के ख़यालों मे

मेरे पास भी है
तुम्हारी यादों के
ऊन के गोले
लेकिन जब भी बुनता हूँ
अपने लिए स्वेटर
तो गला छूट जाता है
और ठंड हमेशा
गले से ही तो घुसती है
मुश्किल से कट रही हैं
इस बार सर्दियाँ

इस बार आऊँ
तो मेरी नाप लेकर
तुम भी मुझे बुन देना
बंद गले का
एक मखमली स्वेटर.......

आवारा मन

सोच के पेड़ को
ज़ोर से हिलाया
मगर ख़यालों का
एक भी पत्ता
हाथ नही आया
मन को मगर
कहाँ चैन था
खाली काग़ज़ का दर्द
उससे देखा ना गया
और उसने
और भी ज़ोर से झकझोरा
सोच के पेड़ को
एक भारी सी टहनी गिरी
मेरे माथे पे
खून देखकर
छुप गया है कहीं
सहम गया है
जानता है
कि फिर डाँट पड़ेगी

इसका मैं क्या करूँ
सारा दिन इधर-उधर
आवारागर्दि करता फिरता है
ख़यालों की आस मे
पत्थर फेंकता रहता है
कहीं पर भी
लोगों की शिकायतें
बढ़ती ही जा रही हैं
लेकिन इसे इतनी समझ कहाँ
इसका तो इकलौता दोस्त
बस यही एक काग़ज़ है ना
जिसका ख़ालीपन
इससे बर्दाश्त नही होता...........

और भी मुश्किल होता है

दो-धारी तलवार पे चलना मुश्किल होता है लेकिन
तेरे हिज़ृ की आग मे पलना,और भी मुश्किल होता है

सोच-समझकर सपने देखो,दुख हैं जुड़ते इनसे ही
ख्वाबों का तामीर मे ढलना,और भी मुश्किल होता है

मुश्किल है सच ग्रहों की गतियों का अंदाज़ लगा पाना
लेकिन तेरे मन को पढ़ना,और भी मुश्किल होता है

जंगल की उस आग पे काबू पाना तो मुश्किल ही है
लेकिन द्वेष की आग का बुझना,और भी मुश्किल होता है

जिन हाथों मे पहले से ही किसी और के रंग चढ़े हों
उन हाथों मे मेहंदी चढ़ना,और भी मुश्किल होता है

यूँ तो हर एक शाम है मुश्किल,लेकिन तेरा ज़िक्र हो जिसमे
ऐसी शामों का तो ढलना,और भी मुश्किल होता है

बिन पैरों के बैसाखी पे चलना मुश्किल है लेकिन
बिन तेरे इक कदम भी चलना,और भी मुश्किल होता है