Friday, May 22, 2009

नज़्म तुम क्यों आ जाती हो

नज़्म
तुम क्यों आ जाती हो
मेरे पास
लिख जाने के लिए

आख़िर मैं
तुम्हे क्या दे पता हूँ
सिर्फ कुछ
अँधेरी गलियों की दास्तान
कड़वी दवाइयों की तरह
कुछ वीभत्स,नग्न सच्चाइयाँ
और धूप के अभाव मे
कुछ मटमैले से रंगों के सिवा
सच सच कहो
क्या तुम्हे वाकई
यही सब चाहिए होता है?

मैं तो मेरे जिस्म मे क़ैद हूँ
इसकी ज़िम्मेदारी है मुझ पर
एक तय वक़्त के बाद
मुझे वापस सौंपना है
इसे मिट्टी को
और उसके बाद
फिर चले जाना है
किसी दूसरे जिस्म मे
मेरी तो
सिर्फ़ इतनी ही गति है

मगर तुम तो उन्मुक्त हो
तुमपर तो
कोई बंदिश नही
फिर तुम
क्यों नही जाकर खेलती
किसी खुशमिजाज़ शायर के पन्नो पर
(और वैसे भी अभी तो
तुम्हारे खेलने कूदने के दिन हैं)

सच सच कहो
क्या तुम्हे वाकाई मुझसे
यही सब चाहिए होता है?



























मगर तुम तो उन्मुक्त होतुमपर तोकोई बंदिश नहीफिर तुमक्यों नही जाकर खेलतीकिसी खुशमिजाज़ शायर के पन्नो पर(और वैसे भी अभी तोतुम्हारे खेलने कूदने के दिन हैं)
सच सच कहोक्या तुम्हे वाकाई मुझसेयही सब चाहिए होता है?

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