Saturday, October 30, 2010

दुआ करना

दुआ करना कि कोई नज़्म फिर गिर जाए झोली मे

दुआ करना की शायर फिर कहीं सो जाए ना भूखा

दुआ करना कहीं पानी ना फिर से लील ले सबको

दुआ करना कहीं बारिश बिना पड़ जाए ना सूखा

दुआ करना कि लब जब भी खुलें तो दुआ ही निकले

दुआ करना कभी निकले कोई भी बोल ना रूखा

खुशबू

दिमाग़ मे कौंधने से
कलम के ढूँढे जाने तक
उड़ चुकी थी कविता

कोई भी वैज्ञानिक
नही ढूँढ सका है अब तक
इस खुशबू को
सहेज पाने की विधि

चूहा

तुम्हारे नाम का चूहा
सरकता है
दिमागी तंग गलियों मे
उलझता है
मेरी हर सोच से
और छोड़ता है
निशाँ अपने
मेरी हर इक चीज़ पर

कोई कोना नही छोड़ा
मेरी हर सोच पर इसने
गड़ाए दाँत हैं अपने

अज़ी इक रोज़ तो
ऐसा हुआ ये पूंछ रंग लाया
ना जाने कहाँ से अपनी
तुम्हारे रंग मे
औ फिर दौड़ा है जब तो
ज़हन की सारी दीवारों पे
तुम्हारे रंग के छींटे गिरे थे
वो दिन
कैसी शरम हो गयी थी
छुपाए लाख ना छुपता
मेरी आँखों से तेरे रंग का
जो नूर छलका था

बस इक उंगली के जितना था
कि जब
पैदा हुआ था ये
औ अब देखो तो,ख़ाके
कितना मोटा हो गया है
कि अब तो पूंछ ही इसकी
है इतनी बड़ी और लंबी
पड़ी रहती है बीचों बीच
गलियों मे
मैं इससे रोज़ टकरा करके
कितनी बार गिरता हूँ

है इसने कुछ नही छोड़ा
वो कोना भी नही जिसमे
मैं अपने काम से थक कर
पलक की खिड़कियाँ ढक कर
जहाँ सोने को जाता था
वहाँ भी कुतर रखा है
मेरी नींदों को अब इसने

मैं अब ये
सोचता हूँ कि
तुम्हारे रूप की बिल्ली
अगर मैं
पाल लूँ घर मे
तो मुमकिन है
कि पीछा छोड़ दे मेरा
ये तेरे नाम का चूहा...

खिड़की के बगल की वो सीट

खिड़की की तरफ करके
बैठी है मुँह
सूरज
आधा दिन
पार कर चुका है
थकी धूप
जब पड़ती है
उसके चेहरे पे
तो फिर से
तरोताज़ा हो जाती है

टुकड़ों मे
देख पता हूँ उसे
भीड़ से
नज़रें बचाते हुए
कभी कान
कभी ढीली सी चोटी
और कभी
उसकी दाँयी आँख के
बगल का छोटा सा निशान
चीटियों की तरह
ढोकर लाता हूँ
छोटे छोटे से दृश्य
और जमा करता जाता हूँ
मन के एक कोने मे

मेहन्दी रची दिखती है
उसकी कलाई मे
सोचता हूँ कुछ देर
कि उसी की शादी की होगी
या उसकी सहेली की
और फिर
बिना सबूत ही
नतीजे पर भी
पहुँच जाता हूँ
कि सहेली की
शादी की ही होगी

मन को विश्वास है
कि बड़ी सुंदर है वो
कम से कम
शुरुआती रुझान तो
इसी ओर
इशारा करते हैं

रोक नही पाता हूँ
खुद को
बार बार
उसी तरफ देख बैठता हूँ
भीड़ चढ़ गयी है डब्बे मे
अब मुश्किल से
कूद फाँद के पहुँचती हैं
उस तक नज़रें

अज़ीब से लोग हैं
बुर्क़े वाले,घूँघट वाले
पान चबाते,मैले-कुचैले
फिर भी अज़ीब सी बात है
कि पिछले अनुभवों के विपरीत
इस बार ये सब कुछ
अच्छा लग रहा है
हँसी बिखर गयी है
मेरे चेहरे पर
एक मुहावरे की
टाँग तोड़ने जा रहा हूँ
की ''एक मछली सारे तालाब को
अच्छा कर देती है''

इस बार
हंसते हुए देखता हूँ
उसकी तरफ
इत्तेफ़ाक़न
वो भी हंस रही है
बस फिर क्या
भीतर का दब्बू आशिक़
छलांगें मारने लगा है

मगर चेहरा
अभी भी अधूरा है
मन मे
कॅमरे का सिर्फ़ एक ऐंगल
वो भी
दाँयी तरफ का साइड व्यू

जी मे आता है
कि बस कुछ पल के लिए
बाकी सारे लोग
बंद कर लें अपनी आँखें
और मैं
ठीक उसके सामने जाकर
उसका पूरा चेहरा देख लूँ
उसके चेहरे का हर निशान
और हर तिल
उसकी त्रि-आयामी
मूर्ति गढ़ लूँ
अपने मन मे

अरे ये क्या
ज़रा सा ख़यालों मे
क्या गुम हुआ
वो ही गुम हो गयी
पता नही कब उतर गयी

ऐसा लगता है
कि मेरे देखने के लिए ही
बैठी थी अब तक
ज़रा सी अनदेखी क्या हुई
वो तो बुरा मान गयी
(वैसे ये वक्तव्य भी
मेरे भीतर के
उस दब्बू आशिक़ का ही है
जिससे बाहर जाकर तो
कुछ कहते बनता नही है
बस मेरे कान मे आकर
करता है
खुसुर फुसुर)

बहरहाल
खिड़की के बगल की
वो सीट
अब खाली है
और मुझे लगता है
कि खिड़की के बगल की वो सीट
अब कभी नही
भर पाएगी.........................

थोड़ा सा ग़म उधार दे दो ना

थोड़ा सा ग़म उधार दे दो ना
झिड़की,कोई धिक्कार दे दो ना

मिट्टी हूँ मैं और तुम कुम्हार हो
मुझको कोई आकार दे दो ना

बिकने को हूँ तैय्यार मैं बनके
मुझको कोई घर-बार दे दो ना

यूँ रूठ के जाओ नही,चाहे
लानते हज़ार दे दो ना

ता-उम्र मैं बगैर घर रही
मरने पे एक मज़ार दे दो ना

पिंजरे से इक पंछी को उड़ाकर
आकाश का विस्तार दे दो ना

नफ़रत ना उगाओ मेरे यारों
बच्चों को ज़रा प्यार दे दो ना

बीमार माँ के लिए चोरी की
माफी इसे सरकार दे दो ना

नशा

लगभग आधी ज़िंदगी
नशे मे
धुत रहने के बाद
जब पिता कर रहा था
नशे से
मुक्ति का संकल्प
ठीक उसी समय
कॉलेज की
पिछली दीवार के पास
बेटा अपने साथियों के साथ
लगा रहा था
ज़िंदगी का पहला कश

नशा मुक्ति की
हमारी और आपकी
प्रतिबद्धता से
कहीं ज़्यादा है
नशे की प्रतबद्धता
अपने वंश को
बचाए रखने के प्रति.....................

दिमाग़ के भीतर

दिमाग़ के भीतर
गोल गोल घूम रही है
तेज़ रफ़्तार हवा
केन्द्र से निकलते हैं
विचारों के कंकड़
और फिर दौड़ने लगते हैं
परिधि पर जाकर
लहुलुहान हो गयी है
दिमाग़ की भीतरी सतह

अजनबी सोच के ये विचार
इतने अस्वाभाविक हैं
बाहरी दुनिया के लिए
कि अगर एक भी कंकड़
मुँह के रास्ते
जाता है बाहर
तो उसके जवाब मे
वापस आते हैं
सैकड़ों पत्थर
विचारों के भी
और असल के भी
(जिसके पास
जिस तरह का भी होता है
वो वही पत्थर
मरता है फेंक के)

बहुत तेज़
और नुकीले होते हैं
ये पत्थर
मस्तिष्क को फाड़ देने की
क्षमता रखने वाले

इसलिए मैं
ज़ोर से चिपका के रखता हूँ
अपने दोनो होंठों को
तुमने शायद
कभी गौर नही किया हो
मगर मेरे
बंद मुँह के भीतर
हमेशा पीछे की ओर
मुडी रहती हैं ज़बान

ये विचार
उत्पन्न होते हैं
मेरे ही भीतर
पर इन्हे उत्पन्न करने मे
मेरा कोई हाथ नही होता
(जान-बूझ कर तो
नही सोचता
मैं ये सब)
फिर भी कभी
अगर किया गया
इनका गौर से परीक्षण
तो निश्चित हैं
कि उनपर पाए जाएँगे
मेरी ही उंगलियों के निशान

इसलिए
डरा डरा रहता हूँ
हमेशा
अजनबी विचारों से
घायल हो रहा हूँ
खुद ही...................

dhandhli

उस रात
बड़ी देर तक चली बैठक
चाँद और बाकी ग्रहों के बीच
सबकी आपत्तियों का
निवारण हो जाने के बाद
बैठक ने इस प्रस्ताव को
सर्व सहमति से पारित किया
की अमुक प्रेमी-प्रेमिका के
प्रणय जीवन मे
आख़िरकार मिलन का संयोग
आ गया है
और आज के दिन ही
उनके मिलने की
संपूर्ण व्यवस्था कराई जाए

तो चाँद ने
इस आशय की चिट्ठी लिखकर
सुबह होने से पहले
सूरज के दफ़्तर पहुँचा दी
और सारे लोग
बैठक के बाद
अपने अपने घर
विश्राम करने चले गये
(क्योंकि किसी भी
प्रेमी-प्रेमिका के
प्रणय जीवन मे
आने वाले कई दिनो तक
मिलन का संयोग नही था
इसलिए अगली बैठक की संभावित तारीख
कोई एक महीने बाद की निर्धारित हुई)
बड़े सुकून मे थे सब

सुबह हुई
तो सूरज ने दफ़्तर मे आने के साथ ही
दिन के प्रस्तावित कार्यों पर
एक सरसरी नज़र डाली
बहुत से और कामो के साथ
ये भी एक काम था
(प्रेमी-प्रेमिका को मिलवाने का
यही बस एक काम था
बाकी सब तो
धोखा दिलवाने,फूट पड़वाने
और जुदा करवाने के ही थे)
फिर भी खुश था सूरज
की कम से कम आज तो
कोई अच्छा काम करेगा वो
वरना ऐसे काम तो अब
छठे-छामासे ही मिलते हैं
कभी कभार

सूरज के लिए
ये कोई मुश्किल काम नही था
अपने इतने लंबे सेवा-काल मे
उसने ना जाने कितनी बार
अंजाम दिया था
ऐसे कामो को

तो उसने तैयार की रूपरेखा
इस कार्य के क्रियान्वयन की
और प्रेमी-प्रेमिका की
संभावित स्थितियों का पता देकर
उनकी ठीक ठीक स्थिति का
पता लगाने को कहा
धूप के दूतों को

धूप के दूतों ने
हर जगह तलाशा
जहाँ उनकी दखलंदाज़ी थी
वहाँ खुद ही
और जहाँ वर्जित था
उनका प्रवेश
वहाँ मदद की उनकी
अंधेरे के मुखबिरों ने
दिन-भर चलता रहा
यही सिलसिला
मगर तलाश ख़त्म होने का
नाम ही नही ले रही थी

धीरे धीरे करीब आ रहा था
सूरज के जाने का वक़्त
साफ साफ झलकने लगा था
उसके माथे पे पसीना
पहली बार
नाकाम होने जा रहा था सूरज
सूरज भी चाह रहा था ठहरना
मगर वक़्त को रोकना तो
उसके बस मे भी नही था

फिर शाम घिरने से
बस कुछ देर पहले
सूरज को दिखाई दिए वो
बहुत बड़ी हैरत ये
की अनुमान के विपरीत
दोनो एक साथ थे
समुद्र के किनारे
एक दूसरे का हाथ थामकर
चैन से लेटे hue

लाज़िम था
सूरज का आग-बबुला हो जाना
गुस्से से तमतमाया सूरज
जब उन्हे करीब से देखने के लिए
उनके ऊपर झुका
तो उसकी आँखें
फटी की फटी रह गयीं
कुछ ऐसा हो गया था
जो कभी नही हुआ था
उससे पहले
खबर के फैलते ही
पूरे तारा-मंडल मे
हड़कंप मच गया
पिछली रात समुद्र मे कूद कर
उन दोनो ने
जान दे दी थी अपनी
भाग्य के तय होने से भी पहले
खुद निर्धारित कर ली थी
अपनी नियती

बस फिर क्या
फिर वही हुआ
जो होता है आम-तौर पर
ऐसी घटनाओ के बाद
चाँद ने ग्रहों की
एक आपात बैठक बुलाई
सबने एक दूसरे पर गढ़े आरोप
की उन्होने
ठीक ठीक नही बताई
अपनी दशा
चंद्रमा ने शनि पर
शनि ने गुरु पर
तो गुरु ने किसी और पर
बड़ी देर तक चलता रहा
यही सिलसिला
अंततहा पूरे तारा-मंडल की
गरिमा का ध्यान रखते हुए
यही उचित समझा गया
की इस पूरे मामले को
किसी ना किसी तरह से
दबा दिया जाए

बस उसके बाद
दस्तावेज़ों मे की गयी फेरबदल
आग के हवाले कर दी गयी
सूरज को लिखी हुई चिट्ठी
और यम को
अपने साथ मिलाकर
उसके दफ़्तर मे रखवाया गया
एक दिन पहले की तारीख वाला
आदेश-पत्र

बस थोड़ी सी जद्दोजेहद से ही
पूरी तरह दब गया
इतना बड़ा मामला
मगर उस घटना के
चश्मदीद गवाह जानते हैं
की कितना कड़ा पहरा था उन पर
मगर मिलन की चाह
इतनी बलवती हो गयी थी
उनके भीतर
की उसने सारे पहरों को
धकेल दिया पीछे

इस घटना के बाद से
पूरी तरह तो नही
फिर भी कुछ हद तक
कमी आ गयी है
भाग्य के द्वारा
प्रेमी -प्रेमिकाओं के
प्रणय जीवन के साथ
की जाने वाली
ज़्यादतियों मे.............................

इतवार

इतवार है आज
मोहल्ले भर मे हुई है
देर से सुबह
साठ से कम की उम्र का कोई भी
नही छोड़ना चाहता है बिस्तर
आठ से पहले

बच्चों को परियों के सपनो से
बदहवास सा उठाकर
उनके मुँह मे
नही ठूँसा जा रहा है
टूथब्रश
(आज इज़ाजत है उन्हे
परियों के साथ
आसमान मे
थोड़ा और दूर तक
उड़ आने की)

पतियों को दाढ़ी नही बनानी आज
(आज उन्हे अपने अफसरों को
नही दिखना है चेहरा
जो ढूँढते रहते हैं
दाढियों मे तिनके)

और पत्नियाँ
खिड़की मे सूरज चढ़ आने के
बावजूद भी
चादर से मुँह ढांपकर
अलसाने का
कर रही हैं नाटक
(नाटक इसलिए करना पड़ रहा है
क्योंकि अब तो उन्हे
सुबह साढ़े पाँच बजे उठने की
ऐसी आदत पद चुकी है
कि अलार्म का बजना
या ना बजना
गौण है)

बेवजह बिस्तर पर लेटे रहना
परिचायक है
आलस के मौजूद होने का
और पुराने ज़माने से ही
आलस हमेशा से रहा है
राजे रजवाड़ों की जागीर
(अब ग़रीब भला
कहाँ से खरीदेगा आलस)
तो इतवार की इस सुबह मे
सब पाल रहे हैं
अपने भीतर के
उस बचे खुचे आलस को
(जिसको की
बलि चढ़ाया जा चुका है
प्रगती और विकास की
बलिवेदी पर)
और ऐसा करने से
उनके भीतर जाग रहा है
राजा होने का भाव

इन सबके बीच
सिर्फ़ एक बाबू जी हैं
जो ना चाहते हुए भी
साठ पार करके
सेवानिवृत्त हो चुके हैं
तड़के सुबह जब वो
सैर से वापस आते हैं
तो अपने सामने
चाय का प्याला ना पाकर
उन्हे एहसास होता है
कि आज इतवार है
(रोज़ तारेख बताने वाला
अख़बार भी तो
लेट आता है
इतवार के दिन)

जैसे जैसे चढ़ता है दिन
वैसे वैसे कम होता जाता है
बचा हुआ इतवार
और उस घटते हुए इतवार मे
धीरे धीरे
उतरता जाता है
हमारी सोच के बदन से
राजसी लिबास
अगली सुबह होने तक
हम पूरी तरह से
तह करके
अलमारी मे रख चुके होते हैं उसे
और फिर से आ जाते हैं
राज दरबार मे खड़े
किसी अदने से मुलाज़िम की तरह
जी-हुज़ूरी की मुद्रा मे..............

Friday, October 29, 2010

नमकीन

यूँ तुम्हारा दौड़ कर आके गले लगना
टूट कर फिर बिखर जाना बज्म मे मेरी
फिर छलक आते हैं जो इन आँख मे आँसू
ये नही आँसू,हैं तेरी प्रीत के छींटे
गर कभी छींटा कोई गिरता है होंठों पर
तब मैं चखता हूँ ज़रा सा स्वाद लहरों का
हाँ ज़रा नमकीन है पर ज़िंदगी सा है

''कुछ नही''

ख़तरनाक है इस तरह होना
सारे ख्वाब,सारी ज़िम्मेदारियाँ
सब दूर बैठे हैं मुझसे
किसी का चेहरा साफ नही दिखता
प्रेम तो हमेशा ही रहता है नदारद
मेरी महफ़िलों से
हैरत ये कि आज
''प्रेम का अभाव'' भी नही आया
आज कोई नही आया यहाँ
मैं अकेला बैठा जूझ रहा हूँ
इस दोपहर की धूप से
दिमाग़ के भीतर भी
कुछ नही चलता
(कई बार सर झटकने के बाद भी)
अगर मैं चाहूं तो
मृत भी मान सकता हूँ
खुद को इस पल मे
ख़तरनाक है मेरे भीतर
इस "कुछ नही" का होना
ख़तरनाक है इस तरह होना

रूको,रूको
मुझसे दूर बैठी इन आकृतियों मे से
एक मे
अभी अभी हुई है हलचल
देखते हैं कौन सी बात तोड़ेगी
मेरे भीतर के इस ''कुछ नही'' के
सन्नाटे को
(शायद ये कुछ कुछ ताश के ढेर से
एक पत्ता उठाने जैसा है
मैं नही जानता कि वो बात
जो बढ़ रही है मेरी तरफ
वो क्या होगी............)

Saturday, October 2, 2010

बाढ़ के बाद

बाढ़ उतरने के बाद भी
वहीँ का वहीँ रहा
रोटी का सवाल
कुछ लोगों ने
यूँ ही
झूठी उम्मीद पाली थी
कि शायद
पानी के साथ
बह जायेगा
ये सवाल भी
मगर पानी तो
ढूंढ़ ढूंढ़ कर
जवाबों को बहा ले गया
अपने साथ
पानी में बह गयी फसल
जो जवाब थी
भूख का
बह गए कच्चे पक्के घर
जो जवाब थे
आंधी पानी धूप का

इस बाढ़ ने
सिर्फ जवाबों को बहाया है
सवाल तो
और भी हो गए हैं बड़े
पानी में फूल के..........