Friday, October 29, 2010

''कुछ नही''

ख़तरनाक है इस तरह होना
सारे ख्वाब,सारी ज़िम्मेदारियाँ
सब दूर बैठे हैं मुझसे
किसी का चेहरा साफ नही दिखता
प्रेम तो हमेशा ही रहता है नदारद
मेरी महफ़िलों से
हैरत ये कि आज
''प्रेम का अभाव'' भी नही आया
आज कोई नही आया यहाँ
मैं अकेला बैठा जूझ रहा हूँ
इस दोपहर की धूप से
दिमाग़ के भीतर भी
कुछ नही चलता
(कई बार सर झटकने के बाद भी)
अगर मैं चाहूं तो
मृत भी मान सकता हूँ
खुद को इस पल मे
ख़तरनाक है मेरे भीतर
इस "कुछ नही" का होना
ख़तरनाक है इस तरह होना

रूको,रूको
मुझसे दूर बैठी इन आकृतियों मे से
एक मे
अभी अभी हुई है हलचल
देखते हैं कौन सी बात तोड़ेगी
मेरे भीतर के इस ''कुछ नही'' के
सन्नाटे को
(शायद ये कुछ कुछ ताश के ढेर से
एक पत्ता उठाने जैसा है
मैं नही जानता कि वो बात
जो बढ़ रही है मेरी तरफ
वो क्या होगी............)

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