Saturday, October 30, 2010

दिमाग़ के भीतर

दिमाग़ के भीतर
गोल गोल घूम रही है
तेज़ रफ़्तार हवा
केन्द्र से निकलते हैं
विचारों के कंकड़
और फिर दौड़ने लगते हैं
परिधि पर जाकर
लहुलुहान हो गयी है
दिमाग़ की भीतरी सतह

अजनबी सोच के ये विचार
इतने अस्वाभाविक हैं
बाहरी दुनिया के लिए
कि अगर एक भी कंकड़
मुँह के रास्ते
जाता है बाहर
तो उसके जवाब मे
वापस आते हैं
सैकड़ों पत्थर
विचारों के भी
और असल के भी
(जिसके पास
जिस तरह का भी होता है
वो वही पत्थर
मरता है फेंक के)

बहुत तेज़
और नुकीले होते हैं
ये पत्थर
मस्तिष्क को फाड़ देने की
क्षमता रखने वाले

इसलिए मैं
ज़ोर से चिपका के रखता हूँ
अपने दोनो होंठों को
तुमने शायद
कभी गौर नही किया हो
मगर मेरे
बंद मुँह के भीतर
हमेशा पीछे की ओर
मुडी रहती हैं ज़बान

ये विचार
उत्पन्न होते हैं
मेरे ही भीतर
पर इन्हे उत्पन्न करने मे
मेरा कोई हाथ नही होता
(जान-बूझ कर तो
नही सोचता
मैं ये सब)
फिर भी कभी
अगर किया गया
इनका गौर से परीक्षण
तो निश्चित हैं
कि उनपर पाए जाएँगे
मेरी ही उंगलियों के निशान

इसलिए
डरा डरा रहता हूँ
हमेशा
अजनबी विचारों से
घायल हो रहा हूँ
खुद ही...................

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