Thursday, May 28, 2009

जान

किसी अड़ियल
किरायदारिन की तरह
जिस्म पर
क़ब्ज़ा किए बैठी है
जान
कितने ही नोटीस भिजवाए
मगर ये
घर खाली करने का
नाम ही नही लेती
दिन-रात
ज़हन की दीवार पर
साँस की एक कील
ठोकती रहती है बस

पता है,जिस रोज़
मेरे नाम हुआ था
ये जिस्म
उसी रोज़ पता नही
इसे कैसे पता चल गया
और इसने अपना सारा सामान
पहले से ही भर लिया
मेरे घर मे

सिर्फ़ इतना ही नही
ज़िंदगी का पूरा
कारखाना ही खोल दिया
(दिल,दिमाग़,फेफड़े वग़ैरह
जाने कैसे कैसे
भयानक उपयंत्रा लगा दिए)
मैने भी सोचा
कि शायद
कुछ दिन के बाद
ये खुद ही बदल लेगी
अपना ठिकाना
मगर उस रोज़ से आज तक
यहीं बनी हुई है
मेरे भीतर
अब इतने पुराने किरायेदार को तो
आप यूँ ही
बाहर नही निकाल सकते
इस मामले मे तो
क़ानून भी इतना सख़्त है
(हथकड़ियाँ तक लग सकतीं हैं आपको)

अच्छा,
कारखाना भी ऐसा है
जो कभी बंद नही होता
भले ही शहर भर मे
करफ्यू लगा हो
मेरी इस किरायदारिन को
कोई फ़र्क नही पड़ता
इसकी मशीन
कभी बंद नही होतीं
कई बार नींद से उठकर
इसके कमरे की दीवार पर
टेक लगाकर सुनता हूँ
ये किरायेदारिन
तब भी जागती रहती है

पता नही
कितनी क्षमता है इसमे
जो इतने सालों से लगातार
जिस्म के इंजिन मे
साँस का ईधन झोंक रही है
कभी कभी
इसकी ये लगन देखकर
बड़ी इज़्ज़त पैदा होती है
इसके लिए
मगर उसके ठीक अगले पल ही
फिर जाग जाता है
मेरे भीतर का मकान-मालिक

तो बस ऐसे ही
लड़ते झगड़ते रहते हैं
हम लोग
ये अपनी
चौखट पर आ जाती है
और मैं
अपने बरामदे मे
खूब खरी खोटी सुनाते हैं
एक दूसरे को
ताने मारते हैं
पर कहीं ना कहीं
हमारे इन तानों मे भी
एक दूसरे के लिए
हमदर्दी छुपी रहती है
हो भी क्यूँ ना
ना तो इसका ही कोई
जानने वाला है
और ना ही मेरा
हमसे मिलने भी कोई नही आता

और ठीक ही तो है
एक संकरे से घर मे
रहने वाले
दो लोगों के बीच
ऐसा ही रिश्ता तो
होता है.........

परछाई

जानते हो
इस तरह से
क्यों जागता रहता है
ये वक़्त
क्योंकि नींद
इसकी परछाई है
जिसे पकड़ने के लिए
ये दिन रात गोल गोल
घूमता रहता है

ठीक वैसे ही
जैसे कभी कभी
कोई कुत्ता
घूमता है गोल-गोल
अपनी पूंछ
पकड़ने के लिए...........

Tuesday, May 26, 2009

इस बावरे को बेवजह,शोहरत तो मिल गयी

इस बावरे को बेवजह,शोहरत तो मिल गयी

चाहत नही मिली तो क्या,नफ़रत तो मिल गयी
खुद को ज़रा समझने की,फ़ुर्सत तो मिल गयी

हाँ वफ़ा के चंद सिक्के बर्बाद हो गये
बेशुमार बेवफ़ाई की,दौलत तो मिल गयी

सब छीनने का वादा पूरा ना कर सके
इज़्ज़त नही मिली तो क्या,ज़िल्लत तो मिल गयी

हैरत का हमे कोई तजुर्बा ही नही था
तुमको बदलते देखकर, हैरत तो मिल गयी

नादान था,तुझमे खुदा को देखता था मैं
ग़म मे तेरे खुदा की,इबादत तो मिल गयी

मुझको किसी ने आज तक देखा नही था यूँ
मुझको तेरी नज़र मे,बग़ावत तो मिल गयी

सब छीन लिया मुझसे जो कुछ भी दिया था
इक याद बस रखने की,इजाज़त तो मिल गयी

ग़म ने तेरे सिखाया था लिखने का ये हुनर
इस बावरे को बेवजह,शोहरत तो मिल गयी

Saturday, May 23, 2009

तुम आए तो क्या क्या आया


तुम आए तो क्या क्या आया
मौसम कई सुहाने आए

पहले नींदों के ख्वाबों मे
कोई दैत्य बसा करता था
जो हर रात मेरी तन्हाई
पर पुरज़ोर हंसा करता था

तुम आए तो भागा ये और
ख्वाब नये सिरहाने आए
तुम आए तो क्या क्या आया
मौसम कई सुहाने आए


जीवन की ये लौ जल जल कर
जलने से जब ऊब चुकी थी
रोशनी से कतराती आँखें
अंधेरे मे डूब चुकी थी

तुम आए तो साथ तुम्हारे
रोशनी के परवाने आए
तुम आए तो क्या क्या आया
मौसम कई सुहाने आए


तुमसे पहले मन की चिड़िया
चीख चीख कर लेट गयी थी
नींद के आँचल मे इस बार भी
फिर से भूखे पेट गयी थी

तुम आए तो अपने संग मे
खुशियों के भी दाने लाए
तुम आए तो क्या क्या आया
मौसम कई सुहाने आए


अब इस कमरे की खिड़की को
खुली खुली मैं रखता हूँ
रोज़ हवा खाने के बहाने
तेरी ओर निकलता हूँ

तुम आए तो जाने ऐसे
कितने और बहाने आए
तुम आए तो क्या क्या आया
मौसम कई सुहाने आए


रात भी आई,चाँद भी आया
सूरज,धूप ,बहार भी आए
इंद्रधनुष के सातों रंग भी
आसमान के द्वार पे आए

तुम आए तो वापस मेरे
कितने दोस्त पुराने आए
तुम आए तो क्या क्या आया
मौसम कई सुहाने आए

Friday, May 22, 2009

नज़्म तुम क्यों आ जाती हो

नज़्म
तुम क्यों आ जाती हो
मेरे पास
लिख जाने के लिए

आख़िर मैं
तुम्हे क्या दे पता हूँ
सिर्फ कुछ
अँधेरी गलियों की दास्तान
कड़वी दवाइयों की तरह
कुछ वीभत्स,नग्न सच्चाइयाँ
और धूप के अभाव मे
कुछ मटमैले से रंगों के सिवा
सच सच कहो
क्या तुम्हे वाकई
यही सब चाहिए होता है?

मैं तो मेरे जिस्म मे क़ैद हूँ
इसकी ज़िम्मेदारी है मुझ पर
एक तय वक़्त के बाद
मुझे वापस सौंपना है
इसे मिट्टी को
और उसके बाद
फिर चले जाना है
किसी दूसरे जिस्म मे
मेरी तो
सिर्फ़ इतनी ही गति है

मगर तुम तो उन्मुक्त हो
तुमपर तो
कोई बंदिश नही
फिर तुम
क्यों नही जाकर खेलती
किसी खुशमिजाज़ शायर के पन्नो पर
(और वैसे भी अभी तो
तुम्हारे खेलने कूदने के दिन हैं)

सच सच कहो
क्या तुम्हे वाकाई मुझसे
यही सब चाहिए होता है?



























मगर तुम तो उन्मुक्त होतुमपर तोकोई बंदिश नहीफिर तुमक्यों नही जाकर खेलतीकिसी खुशमिजाज़ शायर के पन्नो पर(और वैसे भी अभी तोतुम्हारे खेलने कूदने के दिन हैं)
सच सच कहोक्या तुम्हे वाकाई मुझसेयही सब चाहिए होता है?

Friday, May 15, 2009

ग़ज़ल

शौकिया हमने साँप पाले हैं

ज़हर बुझे ये दाँत वाले हैं

फिर से कोई बुरी खबर आई

हाथ मे रह गये निवाले हैं

जवाब मे हमारी उलफत के

उन्होने असलहे निकले हैं

ज़ुर्म मेरा तो एक ही था मगर

तुमने बदले कई निकले हैं

ऊम्र भर घूस जिन्होने खाई

आज उनकी जबां मे छाले हैं

फिर नया ख्वाब बुना है उसने

आज फिर उसकी जाँ के लाले हैं

नूर रहता था कभी आँखों मे

आज क्यूँ वहाँ सिर्फ़ जाले हैं

भूख पर भी कोई लगाम कसे

राशनों पर तो पड़े ताले हैं

बावरे,खुद को समझता क्या है

तेरे खातों मे भी घोटाले हैं