Friday, July 10, 2009

माँस

हड्डियों के ढाँचे पर
करीने से चढ़ाए हुए
माँस के एक खोल हैं हम
माँस की कीमत है केवल
यही है बिकता यहाँ पर
आग भी तो बस यही
स्वीकार करती है
धार भी तो बस इसी मे
घाव करती है
माँस का है खेल सारा

यही है धंधा,यही व्यापार सारा
माँस के ग्राहक खड़े हैं
लंबी लंबी क़तारों मे
बिक रही है देह कभी
ऊँचे कभी कम भावों मे

ऐसे ही इस माँस ने
अस्थियों के ऊपर

जैसे तैसे चढ़ करके
मुझको भी आकृति दी है
मुझको भी एक शक्ल मिली है
और कुछ शुभचिंतकों ने
मेरी इस शक्ल को
धर्म के अनुसार एक
पहचान दी है
मुझे बस ऐसे ही मेरा
नाम मिला है


और इस तरह
जन्म के कुछ छनो के ही भीतर
मुझे बाँध दिया गया
मेरे धर्म,नाम और शक्ल
की सीमाओं मे
माँस ने खुद ही मेरी

शक्ल अख्तियार कर ली
और फिर उस शक्ल से ही
जुड़े कितने लोग
मेरे नाम और शक्ल की
बुनियाद पर
बने कितने रिश्ते
परिवार,समाज,धर्म,देश
और ना जाने कितनी चीज़ें

सब मुझे पहचान देती हैं
भीड़ के बीच मे स्वयं के
सुरक्षित होने का
आभास देती है
मगर कब तक
जब तक की मेरे माँस की
ये गंध
उनकी नाक तक नही पहुँचती
जब तक की उनकी आँखों मे
उतर नही आता है वो शैतान

जो मेरी देह का भक्षक है
जब तक की हथियारों मे
फिर वो धार नही आती
जो की मेरे माँस मे फिर
घाव करने के लिए
बेचैन है

बस तभी तक
बस तभी तक साथ रहते हैं
ये बंधन
नाम,शक्ल,पहचान के
बस तभी तक दुहाई देते हैं
लोग धर्म की
किंतु जब आतंक के सामने
डर सर उठाता है
मेरी शक्ल पर से
माँस पिघल जाता है
मेरा नाम बस कुछ दिनो के लिए
कुछ लोगों के मुँह पर

रह जाता है
मेरा धर्म मंदिरों के भीतर
मूर्तियों और घंटियों मे
बजता रहता है वैसे ही
पहले की तरह
मेरा देश मेरी मौत को
छापता है
अख़बार के किसी कोने मे
अगर,ज़रूरी समझे तो


और शायद एक अच्छा काम
जो किया जाता है
कि मेरी अस्थियों को
बहा दिया जाता है
शायद इस आशय के साथ
कि वो फिर से किसी
माँस के खोल को
ना पहन लें
माँस की उस गंध से
आकर्षित होकर

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