Wednesday, July 29, 2009

घूँघट

तेरी जबां को छूती है जब
उर्दू मीठी हो जाती है
यूँ तो पहले से मीठी है
और भी मीठी हो जाती है

तेरी लटों पर गिरता है जब
सावन राह भटक जाता है
चेहरे पर आता है जब तो
अधरों पर ही अटक जाता है

सूरज तेरी नाक की नथ से
चमक चुराया करता है
चाँद तुम्हारी जुल्फ से अपनी
रात सजाया करता है
तारे तेरी बिंदिया की
चमचम से हैरां होते हैं
तुझको शायद इल्म नही
ये तेरी बातें करते हैं
सूरज ने इक रोज़ कहा था
मुझसे तेरे बारे मे
कि वो सुस्ता लेता है
तेरी परछाई मे छुपके
चाँद भी कहता रहता है कि
उसको तेरे कानों की ये
बालियां अच्छी लगती हैं
हवा तो तेरी दीवानी है
तेरे बदन को छूकर के
खुश्बू मे महका करता है

इसीलिए कहती है अम्मा
वक़्त नही अच्छा है बेटा
नही है अच्छी नीयत सबकी
बहू को पर्दे मे ही रखना
अब तुम समझी अम्मा मेरी
समझती है तुमको भी अपना
डरती है बस दुनिया भर से
चंदा,सूरज,तारों तक से

और मुझे भी डर लगता है
चंदा जब तेरे कानों की
बालियों को घूरा करता है
सूरज जब तेरी नथ के ही
इर्द-गिर्द घूमा करता है

इसीलिए बस इसीलिए तो
कहता हूँ की घूँघट कर ले
अपने सारे रूप की आभा
चूनर और घूँघट से ढक ले
सजनी मेरी मान भी जा ना
अरे मेरी अम्मा की खातिर
घूँघट कर ले...................

1 comment:

  1. bahut achchee kavitaa hai, vaisey toh Yogesh kumar Dhyani ki kavita kee tareef karnaa sooraj ko diyaa dikhaane kee tarah hai, par mere jaise prashansak phir bhee aisee moorkhtaa se baaj nahee aate.

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