Saturday, July 11, 2009

गुब्बारा

तुम्हारे संग गुज़रे हुए पल
कितने भारमुक्त होते हैं
उनपर कोई बोझ नही होता
गुरुत्वाकर्षण के विपरीत
हवा मे तैरते हुए से
होते हैं वो पल
ठीक वैसे ही
जैसे उड़ता है
गॅस का गुब्बारा

हर रात मैं
अपने ख्वाब के गुब्बारे मे
नींद की नदी के ऊपर
उड़ता हूँ
घूमता हों दूर तक
ख़यालों के आकाश मे

मगर आँख खुलने से
ठीक पहले
ना जाने कहाँ से
आ जाती हो तुम
परी के वेश मे
छुपाकर लाती हो
अपने पंखों मे
हक़ीक़त की
एक बड़ी सी सुई
और चुबा देती हो
उस गुब्बारे मे
सारी हवा निकल जाती है
काफूर हो जाता है
मेरे कुछ घंटों का ख्वाब
और मैं धम्म से गिरता हूँ

ज़मीन पर
हर रोज़
सैकड़ों फीट की ऊँचाई से
नीचे गिरता हून मैं
मगर फिर भी
बेदम नही होता
देखा जानां
कितनी ताक़त है
हमारे प्यार मे

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