Sunday, July 5, 2009

तुम्हारी नज़्म

एक गीली नज़्म है
तुम्हारे खुश्क लबों पर
यूँ लगता है
जैसे लबों से उतारकर पानी
सींचा है तुमने
इस नज़्म को

लिखते वक़्त शायद
काग़ज़ पर
कुछ अश्क़ भी गिर गये थे
जिनमें तुमने
स्याही के रंग मिला दिए
इसीलिए तो
कहीं-कहीं पर
नमकीन हो गयी है नज़्म

तुम्हारे खुश्क लबों पर
दरारें पड़ गयी हैं
और कुछ-कुछ जगहों पे
जमा है खून
शायद ख़त्म हो गयी थी
तुम्हारी सारी नमी
तभी तो
नज़्म के आख़िर मे
लाल हर्फो मे लिखा है
तुम्हारा नाम.

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