Monday, April 6, 2009

तुम्हारे इनकार के बाद.

उस दिन जब तुमने
साफ साफ शब्दों मे कहकर
उम्मीद के रोशनदान की
आख़िरी झिर्री भी बंद कर दी थी
उस दिन हमारे रिश्ते के
हाथ की नब्ज़ से
देर तक बहा था ख़ून
और फैल गया था
मन की दीवार पर हर कहीं
और मैं कितने ही दिनो तक पड़ा रहा था
उसी खून मे लत-पथ
फिर जब होश आया
तो इस डर से
की कहीं कोई मेरी आँखों मे ना देख ले
इस खून के छींटे
मैने खूब धोए थे
मन की दीवार और फर्श
लेकिन दीवार के एक हिस्से पर
खून के छींटे इतने सख़्त थे
की लाख धोने पर भी नही गये
और हारकर मैने
वहाँ एक तस्वीर टाँग दी थी

आज मुझे
उस तस्वीर के फ्रेम के नीचे
फिर दिखा खून
जैसे ही मैने
तस्वीर थोड़ी सी खिसकाई
तो एकदम से उमड़ पड़ा
बरसों से रिस रहा खून
और मेरे हाथ
एक बार फिर हो गये हैं लाल

ज़िंदगी का ये ज़ख़्म
शायद कभी नही भरेगा
मगर तुम फ़िक्र मत करना
मेरा वादा अब भी कायम है
की इस खून का कोई भी छींटा
कभी उड़-कर नही पहुंचेगा
तुम्हारी हरी-भरी ज़िंदगी के
आस-पास भी..............

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