Thursday, April 9, 2009

घड़ा

मन के घड़े मे
भरा हुआ था
पानी के रंग का प्रेम
मैं लेकिन
अनजान था इस तथ्य से
कि इसकी तलहटी मे है
एक छोटा सा छेद

जब तक
ज़मीन पर रखा था ये
तब तक सब ठीक था
इसकी मिट्टी भीगी रहती थी
हमेशा प्रेम से

लेकिन ऊँचा उठने की चाह मे
पता ही नही चला
कि कब रिस गया
वो सारा प्रेम

अब,जबकि मैं
आसमान पे हूँ लगभग
तब पाया है
कि इसमे भर गया है
एक काला अहम
ये बहुत गाढ़ा है
इसीलिए रिस्ता भी नही
चिपक रहा है
घड़े की भीतरी दीवारों पर
कैसा अज़ीब सा लगता है
घिन सी आती है

मेरे कुम्हार
अब तोड़ दो ये घड़ा
और इसकी मिट्टी को
फिर चढ़ाओ चाक पर
मगर इस बार
इसमे अहम के घुसने की
कोई जगह मत छोड़ना
और ना ही रखना
प्रेम के रिसने का
कोई भी छेद..........

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