Thursday, April 9, 2009

कुआँ

बरसों से सूखा पड़ा है
ये कुआँ
दिल के एक कोने मे
शायद किसी बहुत ख़ास के
अनदेखे और अनजाने
स्नेह के अभाव मे
मैं खुली आँख से चलता हूँ
तब भी
जब-तब गिर जाता हूँ
इसी कुएँ मे
अंदर से
और भी अधिक लगता है डरावना
ये कुआँ
जब मेरी ही आवाज़ें
लौट-लौट कर आती हैं
मेरे पास
तब अकेले रहने का अहसास
और भी हो जाता है गहरा


कोई भी तो नही उतरा
आज तक
इसके भीतर
बस एक तुम्हारे सिवा
मुझे आज भी याद है साफ-साफ
जब इसकी मुंडेर से
एडियाँ उचका-कर
तुमने नीचे की ओर देखा था
कैसे तुम्हारे बाल
मेरे और सूरज के बीच आ गये थे
बालों मे छुपा हुआ तुम्हारा चेहरा
बालों से ही छन करआती धूप मे
कभी उजला कभी गहरा
लगता था
जैसे रात और दिन
एक हो गये थे
जैसे शाम की गोद मे
धूप के साए सो गये थे
तुम्हारा ध्यान तो
नीचे की तरफ था
मगर मैने देखा था
कि कैसे सूरज बार-बार
तुम्हारी आड़ से बाहर निकल-कर
मुझे अज़ीब से इशारे कर रहा था
कभी मौका मिले
तो इससे पूछना
की मैं कितना खुश हुआ था
उन दिनो
कैसे-कैसे सपने बोने लगा था

वैसे ये अब
ज़्यादातर चुप ही रहता है
तुम्हारे जाने वेल रोज़ से ही
ऐसा रहने लगा है ये
गुम्सुम,उदास
बात भी नही करता मुझसे
ऐसा लगता है कि मुझसे ज़्यादा दुख तो
इसे हुआ है
हमारे एक ना हो पाने का

अब ये सूरज इधर नही आता
इसीलिए इस कुएँ मे
अब काई जमने लगी है
और सीलन भी बढ़ रही है
बहुत अज़ीब सा लगता है अब यहाँ
लेकिन फिर भी मैं
जब-तब गिर जाता हूँ
इसी कुएँ मे
और वहीं पड़ा रहता हूँ
बड़ी देर तक

अब सोच रहा हूँ
कि एक रोज़
किसी को बुलवाकर
मिट्टी से पटवा दूं
यादों के इस कुएँ को.........

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