Thursday, April 9, 2009

दुधमुँही नज़्म

नज़्म अभी दुधमुँही थी
ख़याल के रूप मे
अभी-अभी पैदा हुई
उसके पलने और बढ़ने के लिए
ज़रूरी था कि उसे मिले
शब्दों का दूध
और वही तो ढूँढ रहा था मैं
घर के हर कोने मे
हर बर्तन मे
लेकिन कभी-कभी
पता नही क्या हो जाता है मुझे
कि मैं उसे कहीं रखकर
भूल जाता हूँ
और फिर उस शब्दों के भगोने को
ढूँढ नही पाता
ढूँढ भी लेता था शायद
अगर उसी वक़्त
किसी ने बाहर की दुनिया से
मेरा नाम नही लिया होता तो
और मैं चला गया बाहर
दुधमुँही नज़्म को
बिस्तर पर ऐसे ही छोड़कर
ये सोचकर
कि बस
अभी आ जाऊँगा लौटकर

ठीक-ठीक याद नही
कि कितनी देर बाद लौटा मैं
मगर जब लौटा
तो वो उसे ले जा रहे थे
सफेद चादर मे ढक-कर
आख़िरी बार
बस कुछ देर के लिए दिखाया गया
मुझे उसका चेहरा
पता नही
कितनी देर तक तड़पती रही होगी
वो भूख से
आँखें बाहर को आ गयीं थीं
और होंठ
अज़ीब से रंग के हो गये थे
उसके

कहीं भी नही लिखी गयी
इस घटना की रपट
ना जाने
ऐसी कितनी नज़मों के कतलों का
इल्ज़ाम है मेरे सिर पर
और फिर भी
देखो ना किस तरह
खुले-आम घूम रहा हूँ मैं

इसी तरह से
ना जाने कितने दुधमुहों की
रोज़ होती है मौत
हमारे देश मे

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