Sunday, June 26, 2011

ग़ज़ल

होश की देहरी पार हुई कब क्या मालूम
उनसे आँखें चार हुई कब क्या मालूम

जिस सूरत पर मर बैठे हम क्या जानें
क्या थे उसके ज़ात-ओ-मज़हब क्या मालूम

यूँ तो याद नही आता है गुनाह कोई
रूठ गया क्यों मुझसे वो रब क्या मालूम

याद है बस इतना कि तू था ख्वाबों मे
कैसे गुज़री रात कहाँ कब क्या मालूम

चैन की नींदें होश के छींटें और सुकून
कैसे उसने लूटा ये सब क्या मालूम

धुन जब लागी यार से जाके मिलने की
कैसे दरिया पार हुआ कब क्या मालूम

1 comment:

  1. वाह योगेश, सब शेर बहुत ही गहरें हैं. कौन सा quote करूँ, मुश्किल काम है
    ये दो बहुत ही खूबसूरत लगे!


    चैन की नींदें होश के छींटें और सुकून
    कैसे उसने लूटा ये सब क्या मालूम

    धुन जब लागी यार से जाके मिलने की
    कैसे दरिया पार हुआ कब क्या मालूम

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