Friday, July 17, 2009

छिपकली की पूंछ जैसा मन

छिपकली की पूंछ जैसा मन
मार दो फिर भी जनमता है
काट दो फिर भी पनपता है
उलझता है मुझसे ये हर छन
छिपकली की पूंछ जैसा मन

रात इसको रस्सियों मे जकड़ के
फेंक आया था नदी के पार मैं
पर ना जाने कैसे खुलके आ गया
इस सुबह फिर से है मेरे पास मन
आ गया है तरस इसको देखकर
खून मे लथपथ बिचारा मन
छिपकली की पूंछ जैसा मन

कर रहा हूँ पट्टियाँ अब घाव पे
दर्द मे है बिचारा मैं क्या करूँ
जानता हूँ पर ये जैसे ठीक होगा
थोप देगा फिर से अपनी ख्वाहिशें
जगाएगा मुझको सारी रात भर
दिखाएगा चाँद तारे दोपहर
मुझी को छलता है ये निष्ठुर
चिपचिपा और लिसलिसा सा मन
छिपकली की पूंछ जैसा मन

ये करे भी तो बिचारा क्या करे
जिसको जैसा बनाया भगवान ने
वो तो वैसा ही रहेगा उम्र-भर
मुझसे लड़ना खून मे है इसी के
ये अज़ब सी बात है कि इसके भीतर
दर-असल बहता है मेरा खून ही
खैर जैसा भी है ये पर साथ अपना
छूटने वाला नही मरने से पहले
देह के रिश्ते तो फिर भी टूटते हैं
पर ये रिश्ता टूट सकता है भला क्या

तो हमारा इस तरह लड़ना-झगड़ना
प्यार है शायद अनूठे किस्म का
ये भी मुझको बोलता रहता है कुछ भी
मैं भी इसको सुनाता हूँ खरी-खोटी
पर कहीं भीतर ही भीतर जानते हैं
कि नही है मुनासिब जीना बिछड़कर
एक अच्छे रिश्ते की पहचान आख़िर
ये समझ लेना ही तो होती होगी

ये मुझे कहता है की मत रूप पर इतना अकड़
तू,ऐ बदन
और मैं कहता हूँ इसको
छिपकली की पूंछ जैसा मन
मार दो फिर भी जनमता है
काट दो फिर भी पनपता है
उलझता है मुझसे ये हर छन
छिपकली की पूंछ जैसा मन

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