Saturday, April 4, 2009

आवारा मन

सोच के पेड़ को
ज़ोर से हिलाया
मगर ख़यालों का
एक भी पत्ता
हाथ नही आया
मन को मगर
कहाँ चैन था
खाली काग़ज़ का दर्द
उससे देखा ना गया
और उसने
और भी ज़ोर से झकझोरा
सोच के पेड़ को
एक भारी सी टहनी गिरी
मेरे माथे पे
खून देखकर
छुप गया है कहीं
सहम गया है
जानता है
कि फिर डाँट पड़ेगी

इसका मैं क्या करूँ
सारा दिन इधर-उधर
आवारागर्दि करता फिरता है
ख़यालों की आस मे
पत्थर फेंकता रहता है
कहीं पर भी
लोगों की शिकायतें
बढ़ती ही जा रही हैं
लेकिन इसे इतनी समझ कहाँ
इसका तो इकलौता दोस्त
बस यही एक काग़ज़ है ना
जिसका ख़ालीपन
इससे बर्दाश्त नही होता...........

1 comment:

  1. bawra man...awara man....bahut man hai bhai tumhare pas

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